Showing posts with label Uttar Pradesh. Show all posts
Showing posts with label Uttar Pradesh. Show all posts

Tuesday, July 14, 2020

क्या डॉ कफील खान को मुसलमान होने की सज़ा मिल रही है? लगता तो कुछ ऐसा ही है !



- पंकज चतुर्वेदी
मानवाधिकारों को पुलिस के जूतों के तले कुचलने का ज्वलंत मामला है कफील खान की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तारी . बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कफील खान को गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त 2017 में ऑक्सिजन की कमी के कारण 60 से अधिक बच्चों की मौत के मामले में जेल भेज दिया गया था। 


हालाँकि यह पुष्टि हुयी कि वह तो बच्चों की जान बचने के लिए अपने पैसे से अपने अस्पताल से आक्सीजन सिलेंडर ला कर दिन रात काम कर रहे थे. उस मामले में उन्हें 9 महीने जेल में काटने पड़े बाद में एक विभागीय जांच ने उन्हें चिकित्सा लापरवाही, भ्रष्टाचार के आरोपों और हादसे के दिन अपना कर्तव्य नहीं निभाने के आरोपों से मुक्त कर दिया।

उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके भाषण को लेकर डॉ कफील खान पर मुकदमा दर्ज किया गया था. 29 जनवरी की रात को उप्र की स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा मुम्बई एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर कफील को अलीगढ़ में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था. जहां से पहले अलीगढ़ जिला जेल भेजा गया था तथा एक घण्टे बाद ही मथुरा के जिला कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया था. तब से वह यहीं पर निरुद्ध है।

उल्लेखनीय है कि डॉ. कफील राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत 13 फरवरी से मथुरा जेल में बंद हैं। अभी उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) की अवधि को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से तीन महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। खान पर लगे एनएसए की अवधि 12 मई को खत्म हुयी थी लेकिन तीन महीनों की बढ़ोतरी के बाद वह 12 अगस्त तक बाहर नहीं आ सकेंगे।
हाल ही में उनका एक पत्र सार्वजनिक हुआ है जिसमें वे सवाल कर रहे हैं कि “किस बात की सज़ा मिल रही है मुझे?”—डॉक्टर कफ़ील ने पत्र में यह प्रश्न पूछा है। आखिर किस बात के लिए उन्हें अपने घरवालों से दूर कर दिया गया है। क्या सरकार को चलाने वाले लोग कभी यह नहीं सोचते होंगे कि बगैर डॉ. कफ़ील के उनके घर में ईद कैसे गुज़री होगी? आखिर कब तक डॉ. कफ़ील के घरवालों का हर रोज़ मुहर्रम में तब्दील होता रहेगा? ज़रा उनके इन शब्दों का दर्द तो महसूस कीजिए: “कब अपने बच्चे, बीबी, माँ, भाई, बहन, के पास जा पाऊँगा?”
कफील के भाई आदिल अहमद खान ने कहा कि पत्र 15 जून को कफील द्वारा लिखा गया था और 1 जुलाई को उनके पास पहुंच गया था। आदिल ने दावा किया कि पत्र डाक द्वारा भेजा गया था। घर की याद उनको ज़रूर सता रही है, मगर एक डॉक्टर के नाते वे खुद को जनता की सेवा न कर पाने की वजह से भी दुखी हैं। भारत में वैसे भी डॉक्टर और मरीज़ का अनुपात कम है। उस में भी एक बेहतरीन डॉक्टर को जेल में क़ैद कर सरकार कौन सा जनकल्याण कर रही है?

अपने पत्र के आखिरी जुमले में डॉ. कफ़ील कहते है कि “कब कोरोना की लड़ाई में अपना योगदान दे पाउँगा?” डॉ. खान अपने ख़त में लिखते हैं कि मैं “मगरिब (की नमाज़) पढ़ने के बाद ‘नावेल’ (उपन्यास) ले कर बैठ जाता हूँ। मगर वहां का माहौल ऐसा दम घुटने वाला होता है जिसे बयान नहीं किया जा सकता है। अगर बिजली चली गयी तो हम पढ़ नहीं सकते। फिर हम पसीने से सराबोर हो जाते हैं। रात भर कीड़े, मच्छर हमला करते हैं। पूरा बैरक मछली बाज़ार की तरह लगता है। कोई खास रहा है, कोई छींक रहा है, कोई पेशाब कर रहा है, कोई ‘स्मोकिंग’ कर रहा है…पूरी रात बैठ कर गुजारनी पड़ती है”।इसमें ये भी बताया गया है कि एक ही रूम कई कई लोग रहते हैं और बिजली के कटौती के कारण गर्मी इतनी तेज होती है जिसके कारण पसीने और मूत्र के गंध जीवन को नरक बना देता है। एक जीवित नरक वास्तव में ऐसा ही होता है।

डॉ. कफील का दावा है कि जेल में लगभग 150 से अधिक कैदी एक ही शौचालय साझा कर रहे हैं। वहीं उन्होंने जेल के खाने आदि की व्यवस्थाओं पर भी सवाल खड़े किए हैं। पत्र में कफील खान ने जेल में बिजली कटौती और खान-पान पर सवाल किए हैं। उन्होंने यहां सामाजिक दूरी के नियमों का पालन नहीं होना भी बताया है। कफील खान ने अपनी दिनचर्या को भी पत्र में लिखा है।

हाल के एक वीडियों में डॉ कफील खान कह रहे है कि ‘मेरे परिवार को डर है कि पुलिस मुझे एनकाउंटर में या यह बताकर ना मार दे कि मैं भाग रहा था। या ऐसा दिखाया जाएगा कि मैंने आत्महत्या कर ली।’ वीडियो में डॉक्टर कफील आगे कहते हैं, ‘अपनी आखिरी वीडियो में एक बात जरूर करना चाहूंगा कि मैं इतना बुजदिल नहीं हूं कि सुसाइड कर लूंगा। मैं कभी आत्महत्या नहीं करूंगा। मैं यहां से भागने वाला भी नहीं हूं जो ये (पुलिस) मुझे मार दें।’

पूर्वांचल का सारा इलाका जानता है कि डॉ कफील खान बच्चों का बेहतरीन डोक्टर है, सन २०१८ में जमानत पर बाहर आने के बाद डॉ कफील ने बिहार से ले कर केरल तक निशुल्क चिकित्सा शिविर लगाए -- उनका दोष बस यह है कि वे सरकार के लोगों को विभाजित करने वाले नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर सरकार से सहमत नहीं और उन्होंने उसके खिलाफ आवाज़ उठायी -- उन पर भड़काऊ भाषण का आरोप है , जो अदालत में एक मिनिट नहीं ठहर सकता सो उन पर एन एस ए लगाया गया-- इससे ज्यादा जहरीले भाषण तो कपिल मिश्र , परवेश वर्मा, रागिनी तिवारी के सोशल मिडिया पर वायरल हैं .

उत्तर प्रदेश की अमरोहा से लोकसभा सांसद कुंवर दानिश अली ने ट्वीट कर मथुरा जेल में बंद डॉ. खान को रिहा करने की मांग की। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार विकास दुबे जैसे खूंखार अपराधियों पर नरमी दिखा रही है, जबकि बच्चों की जान बचाने वाले डॉक्टर को जेल में बंद कर रखा है।

मुझे लगता है कि यदि आप एक सभी समाज का हिस्सा हैं तो खुल कर डॉ कफील को जेल में रखनी का प्रतिरोध करें-- चाहे सोशल मिडिया पर, चाहे उत्तर प्रदेश सरकार के सोशल प्लेटफोर्म पर या केक्ल अपने मन में या जाहिरा -- जान लें यदि आज चुप हो तो अन्याय का अगला कदम आपके कपाल पर ही पडेगा।

Sunday, July 12, 2020

एनकाउंटर का जश्न: लोकतंत्र में न्यायपालिका पर विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है


-मनिंदर सिंह
यह जो एनकाउंटर संस्कृति का जश्न मनाने में मशगूल है उन्हें  इतना पता होना चाहिए कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधियों का एनकाउंटर तभी होता है जब वह या अपने पालनहारों के लिए खतरा बन जाते हैं या फिर उनकी पूंछ पर ही पैर रख देते हैं। यदि आप यहां तर्क दे रहे हैं कि पुलिस ने अपने शहीद साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दुबे को मारा है तो फिर यह भी समझ लीजिए कि दुबे ने उन आठ पुलिस वालों को पुलिस वालों की मुखबिरी की वजह से ही मारा था। यदि इसके पहले अपराध में ही पुलिस वाले और सिस्टम ढंग से काम करते तो तभी इसे टांग दिया जा सकता था इसे इतना बड़ा अपराधी बनाने में भी पुलिस और राजनेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा। 


दुबे जैसे लोग सिर्फ मोहरा होते हैं जिन्हें राजनेता और यह सिस्टम अपने फायदे के लिए खड़ा करता है और जब काम निकल जाता है तो ऐसे ही सफाया भी कर दिया जाता है। वह तो वैसे भी इन्हीं का आदमी था जब तक सिस्टम सही से चल रहा था तब तक सब ठीक था जहां इनकी पूंछ पर पैर रखा वहां बात बिगड़ गई। सिस्टम यूं ही चलता रहता है नया दुबे खड़ा कर दिया जाता है। याद रखिएगा एनकाउंटर आज से शुरू नहीं हुए यह पहले भी होते थे और आगे भी चलते रहेंगे। 

यदि आप इसी तरह एनकाउंटर संस्कृति पर जश्न मनाएंगे और और सरकारों की ओर पुलिस की पीठ थपथपाएंगे तो फिर आने वाले समय में न्यायपालिका से भरोसा और भी उठता जाएगा। और कल को यदि आप से जुड़े किसी निर्दोष का भी एनकाउंटर करके उसे भी जायज ठहरा दिया जाए तो फिर हैरानी मत मानिएगा। उस समय भी उस पर जश्न मनाने वाले लोग मौजूद होंगे। अरे देश का इतिहास सैकड़ों ऐसे फर्जी एनकाउंटर से अटा पड़ा है जहां पर निर्दोष लोगों को दोषी बताकर उनका फर्जी एनकाउंटर किया गया और बाद में जब केस खुले तो फिर काली कहानी निकलकर सामने आई। 

मुझे याद आता है कि हमारे शहर के एक बहुत बड़े उद्योगपति के जवान पुत्र का दिनदहाड़े सालों पहले फर्जी एनकाउंटर कर दिया गया था वह तो उनका रसूख था जो वह इस केस को बड़ी अदालत तक लड़े और अपने बेटे को न्याय दिलवा पाए परंतु सब के पास ना पैसा होता है और ना ही इतनी ताकत। लोकतंत्र में न्यायपालिका का विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है। याद रखिए आप अभी इस पर जश्न मना रहे हैं परंतु एक समय ऐसा भी आ सकता है जब आप पछता रहे होंगे तब शायद आपकी तरफ भी कोई ना खड़ा हो। 

पुलिस की गोली जब बेलगाम हो जाती है ना तो फिर वह जाती दल या कुछ और नहीं देखती। इसलिए कानून का इकबाल बना रहे वह सबसे ज्यादा जरूरी है। न्यायपालिका कितने खतरे में है इसका पता तो इसी बात से चल जाता है कि पुलिस वालों को भी इस बात का भरोसा नहीं रहा कि सिस्टम से उन्हें न्याय मिल पाएगा इस वजह से उन्हें स्वयं अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाना पड़ा। यह सच में भयावह है। बाकी इस एनकाउंटर में शामिल रहे पुलिस वालों के लिए एक ही सलाह के भैया एनकाउंटर करने से पहले इससे अच्छा होता कि खाकी मूवी के फ्लॉप एक्टर तुषार कपूर की आखिरी सीन वाली एक्टिंग भी देख लेते तो शायद कहानी असली लगती।

डिस्क्लेमर- हम किसी भी तरह के अपराध या अपराधी का समर्थन नहीं करते ना ही समूल तौर पर पुलिस या किसी संस्था का विरोध करते। उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ न्याय व्यवस्था को बाईपास करके एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा देने पर चिंता जाहिर करना है। जिंदगी ना मिलेगी दोबारा।

Saturday, July 11, 2020

दिए जलाओ, नगाड़े बजाओ, विकास को न्याय मिल गया, न्यू इंडिया में आपका स्वागत है!



- मनीष सिंह
इंस्टंट न्याय.... न कोर्ट, न पेशी, न जज, न जल्लाद, ये एनकाउंटर न्याय है बबुआ। भारत अब वो भारत नही जो टीवी पर गोलियां बरसाते हुए पाकिस्तानी को भी भारतीय न्यायिक प्रक्रिया से गुजारता था। अब नुक्कड़ पर खड़ा पुलिसवाला शहंशाह है- जो रिश्ते में तो आपका बाप लगता है। 

बापजी रिपब्लिक में आपका स्वागत है। वर्दी बदल दी जानी चाहिए, खाकी और खादी का अंतर भी। अब इनको चाहिए काली पोशाक, एक हाथ मे रिवाल्वर दूसरे में फांसी की रस्सी। पीछे साउंड ट्रेक चले- "अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, हर जुल्म मिटाने को..."

यह अंधेरी रात ही है। यह अंधेरा पसन्द किया गया था, चाहा गया था। विकास के गुजरात मॉडल की तरह, न्याय के इस मॉडल को सोहराबुद्दीन मॉडल का नाम मिलना चाहिए। यह मजबूत सरकार है। हमने सोचा था कि मजबूती दिल्ली में रहेगी, हम दूर अपने शहर गांव में आराम से रहेंगे। ऐसा नही होता, सरकार हमेशा आपके दरवाजे से थोड़ी दूर ही होती है। 

उसकी 56 की छाती पर बुलेटप्रूफ जैकेट होती है, आपकी नही। आपकी मजबूती की तमन्ना गलवान में पूरी नही हो पाती, तो क्या हुआ। यह भोपाल हैदराबाद और केरल में तो पूरी हो रही है। आपके मोहल्ले में भी होगी, आराम से बैठिए, जब तक गोली आपके घर मे न घुसे। अभी थोड़ा वक्त है, तब तक दिए जलाए जा सकते हैं, थालियां और नगाड़े बजाए जा सकते हैं। 

आप पूछ सकते हैं कि नया क्या है। क्या 70 साल में एनकाउंटर नही हुए? जी हां, बिल्कुल हुए। नयापन बेशर्मी का है। किस्सों का है, उस कुटिल मुस्कान का है जो बेशर्म झूठ बोलते वक्त मूंछो के नीचे फैल आती है। आगे स्क्रिप्ट वही है, ज्यूडिशियल इंक्वायरी, और फिर कहानी का वेलिडेशन। सब मिले हुए हैं जी। 

मुझे लगता है कि कुछ तो बदलाव होना चाहिए। हर थाने और चौकी में एक नई पोस्ट क्रिएट होनी चाहिए। नही एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नही ..  वो तो हर सशस्त्र पुलिसवाला कभी भी बन सकता है अगर सैय्या कोतवाल हो और सामने कांपता हुआ आरोपी। हर थाने चौकी में एक "एनकाउंटर  स्क्रिप्ट राइटर" की जरूरत है। जो एनकाउंटरों के लिए एक कन्विसिंग कहानी लिख सके। 

असल मे जजो को इस काम मे प्रतिनियुक्त किया जा सकता है। क्योंकि न्यायालयों की जरूरत तो अब है नही। ये कहानियां आपके कोर्ट में आने पर आप स्वीकार कर सकते है, तो बेहतर है थाने में बैठकर लिख भी दिया करें। 

मेरी मांग और सुझाव पर गहराई से सोचिये। आखिर आपके भैया, पापा, बेटे की लाश जब घर में आये, तो साथ आयी उसके एनकाउंटर की कहानी में जरा विश्वसनीयता भी होनी चाहिए.. 

तो बताइये बहनों और उनके भाइयो। 
होनी चईये कि नई होनी चईये ??

वो कौन हैं जो चाहते थे विकास दुबे जिंदा न रहे, किसके लिए मुसीबत बन सकता था विकास दुबे?


- रोहित देवेंद्र शांडिल्य
इसमें कोई शक नहीं है कि विकास दुबे की पुलिस कस्टडी में हत्या की गई. शक इसमें भी नहीं है कि वह अपराधी था। शक सिर्फ इस बात में है कि क्या विकास दुबे इस समय यूपी का ऐसा अपराधी था जिसे हर हाल में मार डालना ही अंतिम विकल्प था। उसका जिंदा रहना यूपी की कानून व्यवस्‍था ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के‌ अस्तित्व के लिए खतरा था? 

अपराध की दुनिया से सीधा वास्ता ना रखने वाले लोगों के लिए एक सप्ताह पहले विकास दुबे कोई नहीं था। ना उसे लोग नाम से जानते थे ना ही काम से और ना ही तस्वीरों से। एक रात जब पुलिस कर्मियों के मरने की खबर आई तो किसी दूसरे विकास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। किसी एड्रेस प्रूफ में लगी उसकी धुंधली सी तस्वीर ही मीडिया के पास थी। कानपुर और कानपुर देहात के अलावा विकास को जानने वाले उंगलियों में गिनने भरके थे। आप खुद से पूछिए जिस विकास के एनकाउंटर के लिए आप बेकरार थे उसे आप आठ दिन पहले जानते भी थे क्या?  फिर ऐसा क्या हुआ कि एक अपराधी जिसके ऊपर एक सप्ताह पहले तक पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट नहीं लगाया हुआ था उसे गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस दल वहां अचानक पहुंचा। इसमें भी शक नहीं है कि उसकी मुखबिरी ना होती तो उसी रात उसको मार डालने के इंतजाम थे।

शक इसमें भी नहीं कि उस रात जो कुछ जो भी हुआ वह गलत था। पुलिस कर्मियों की हत्याएं कष्टकारी थीं। लेकिन न्याय की व्यवस्‍था क्या कहती है?  जब एक साथ कई मासूम लोगों को डायनामाइट से उड़ा देने वालों को जेल में रखा जाता है। उनकी सुनवाई होती है फिर उन्हें सजा होती है। तो फिर यह अधिकार विकास दुबे को क्यों नहीं मिलना चाहिए था? विकास दुबे को भारत की न्याय प्रणाली और संविधान में मिले अधिकार एक झटके में इसलिए खत्म किए जा सकते हैं क्योंकि कोई चाहता है कि अब वह जिंदा ना रहे? उसका जिंदा रहना किसी के लिए मुसीबत बढ़ते जाना जैसा बन गया था? 

या विकास को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके आदमियों ने पुलिस वालों की हत्याएं की थीं। तो यदि कोई अपराधी किसी आम आदमी की हत्या करता है तो उसके ऊपर अपराध कोर्ट साबित करती है लेकिन जब अपराध पुलिस के साथ होता है तो यह नियम बदल जाते हैं। पुलिस की भी नियत देखिए। उसकी निगाह में एक जान की कीमत तब महत्वपूर्ण है जब हत्या पुलिस वाले की हो। ‌मरने वाला यदि किसी दूसरे पेशे से हो तब पुलिस के लिए खास चिंता का विषय नहीं है। आप या तो पुलिस में भर्ती हो जाइए यदि ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर आपकी जान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। 

रिश्वत लेकर बनाए गए ओवरब्रिज के गिरने से एक झटके में दर्जनों लोग मर जाते हैं। जिनके घर के लोग मरते हैं वह बंदूक लेकर किससे बदला लेने निकले? पुलिस सजेस्ट करे कि वह किसको मारें? उनके पास रिवॉल्वर नहीं होतीं या बदला लेने का यह अधिकार पुलिस के पास होता है। पुलिस के जिस कृत्य को आप अपराधी के मार डालने से जस्टीफाई कर रहे हैं जरा उसकी नियम टटोलकर देखिए। 

सरकार से सवाल पूछना या उसके किसी कृत्य पर बात करना फैशन के बाहर है। आईटी सेल तय करता है कि समाज किस दिशा में सोचे। आईटी सेल की सोच के अनुसार ही मीडिया अपनी थीम तय करता है। आईटी सेल इस हत्या को जस्टीफाई कर रहा है तो मीडिया का फर्ज है कि वह भी इसे जस्टीफाई करे। मैं टीवी नहीं देखता लेकिन मीडिया इस घटना पर प्रश्न खड़ा करने के बजाय योगी की सख्त इमेज से जोड़कर उस पर कविताएं लिख रहा होगा। 'ले लिया बदला' या 'चमकता प्रदेश थर्राते अपराधी' जैसे थीम वाले विशेष प्रोग्राम चल रहे होंगे। 

वह समय गया जब मीडिया किसी घटना पर नीर झीर का विवेक करता था। वह गलत और सही को चुनने में आपकी मदद करता था। अब वह दौर नहीं है। यह आपको सोचना है कि पुलिस और सरकारों के मुंह में जब किसी की हत्या करने का खून लग चुका हो तो यह आपके लिए किस हद तक नुकसान देय है। कमजोर न्यायपालिका और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया आपका भला कर सकती हैं या बुरा ये बात आने वाले दो दिन के 'स्मॉल लॉकडाउन' में आप सोच सकते हैं...

Wednesday, July 8, 2020

आजतक की रिपोर्ट: सोचिये, अगर ये मासूम आपकी बच्चियां होतीं तो आप पर क्या गुजरती?


शीतल पी सिंह
मामला चित्रकूट का है। गोस्वामी तुलसीदास जी यहीं के थे। यह न्यूज़ स्टोरी भी यहीं की है, जिसे शानदार पत्रकार मौसमी सिंह ने जग ज़ाहिर किया है। उत्तर प्रदेश मध्यप्रदेश और समूचे उत्तर भारत में अवैध खनन सबसे बड़ा अवैध व्यवसाय है। सरकार चलाने वाले दल, उनके मुखिया लोग, नौकरशाही, पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ के हाथ इसकी कमान है और साबित हो चुका है कि किसी रंग के झंडे में इसे ख़त्म करने की सामर्थ्य नहीं।

लेकिन यह स्टोरी उससे बहुत आगे का बहुत बेदर्द और घिनौना सच बयान कर रही है। कोल आदिवासियों के इस इलाक़े में प्रधानमंत्री की गौरवशाली घोषणा लापता है कि अस्सी करोड़ ज़रूरतमंदों को बीते तीन महीने से मुफ़्त राशन दिया जा रहा है ।

यहाँ कोल परिवारों की नाबालिग बच्चियों को कोरोना के चलते फैली भुखमरी का फ़ायदा उठाकर खनन माफिया के ठेकेदार डंपर के ड्राइवर और अन्य दिहाड़ी मज़दूरी का काम देने के नाम पर यौन शोषण कर रहे हैं ।बच्चियों ने ऑन कैमरा यह बताया है और प्रशासन ने ऑन कैमरा इसे नकार दिया है!

अब बाक़ी आपके ज़मीर पर है, यदि आप मोदी योगी भक्त हैं तो मुँह फेर लीजिये या बात बदल दीजिए या कह दीजिए कि अखिलेश और मायावती के जमाने में इससे ज़्यादा होता था या इंसान होने के नाते बेबस होने के नाते अपने मन के कोने में भीग कर सोचिये कि अगर ये बच्चियाँ आपकी बच्चियाँ होतीं तो आप पर क्या गुजरती?

Tuesday, July 7, 2020

कोरोना से लड़ाई की पब्लिसिटी और सिस्टम की जमीनी हकीकत में फर्क जानना है तो इसे पढ़िए

- मृत्युंजय शर्मा
सबसे पहले मैं ये कहना चाहता हूं कि ये कोई पॉलिटिकल एजेंडा नहीं है, आप मेरे ट्विटर और फेसबुक अकाउंट पर देख सकते हैं कि मैं मोदी सरकार का समर्थक रहा हूं. लेकिन अब मुझे लगता है कि मोदी सरकार केवल मेकओवर कर रही है और केवल मीडिया हाउस को खरीद कर, टीवी और सोशल मीडिया पर अपना ब्रांड बना कर कैंपेन कर लोगों को मिसलीड कर रही है.

इसकी कहानी शुरू होती है, पिछले सोमवार से. पिछले सोमवार से पहले मेरी वाइफ को पिछले एक हफ्ते से फीवर आ रहा था. शायद किसी दवाई की एलर्जी हो गई थी, मेरे घर के पास के ही अस्पताल में ही उसका ट्रीटमेंट चल रहा था. अचानक से उसे कफ की प्रोबलम भी होने लगी. फिजीशियन ने सलाह की कि आप सेफ साइड के लिए कोरोना का टेस्ट करा लो. टीवी पर देख कर हमें लगता था कि कोरोना का टेस्ट बहुत आसान है और अमेरिका और इटली जैसे देशों से हमारे देश की हालत बहुत अच्छी है. सरकार ने सब व्यवस्था कर रखी है. इसी इंप्रेशन में हमने कोरोना का टेस्ट कराने की बात मान ली.

मुझे पता था कि सरकारी अस्पताल में इतनी अच्छी फेसिलिटी मिलती नहीं है, हमने कोशिश की कि कहीं प्राइवेट में हमारा टेस्ट हो जाए. हालांकि सभी न्यूज़ चैनल यह दिखा रहे थे कि सरकारी अस्पताल में बहुत अच्छी सुविधाएं हैं, लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि प्राइवेट लैब में अटेंम्ट करता हूं. कोरोना के टेस्ट के लिए जितने भी प्राइवेट लैब की लिस्ट थी, मैंने वहां कॉन्टेक्ट करने की कोशिश की लेकिन वहां कांटेक्ट नहीं हो पाया. जहां कॉन्टेक्ट हो पाया, उन्होंने मना कर दिया कि वो कोरोना का टेस्ट नहीं कर रहे हैं. अब मेरे पास आखिरी ऑप्शन बचा था कि गवर्नमेंट की हैल्पलाइन से मदद लेते हैं. मैंने वहां कॉल किया. गवर्नमेंट का सेंट्रल हैल्पलाइन, स्टेट हैल्पलाइन और टोल फ्री नम्बर तीनों पर हमारी फैमली के तीनों व्यस्क लोग, मैं, मेरा भाई और मेरी वाइफ, हम तीनों इन हैल्पलाइन पर फोन लगातार मिलाते रहे. 

तकरीबन एक घंटे बाद मेरे भाई के फोन से स्टेट हैल्पलाइन का नंबर मिला. उस हैल्पलाइन से किसी सामान्य कॉल सेंटर की तरह रटा रटाया जवाब देकर कि आपको कल शाम तक आपको फोन आ जाएगा, वगैहरा कह कर फोन डिस्कनेक्ट करने की कोशिश की, लेकिन मैंने बोला कि सिचुएशन क्रिटिकल है, अगर किसी पेशेंट को कोरोना है तो उसे जल्द से जल्द ट्रीटमेंट देना चाहिए, ऐसी सिचुएशन में हम आपकी कॉल का कब तक कॉल करेंगे. हमने उनसे पूछा कि टेस्ट का क्या प्रोसीजर होता है, कॉल के बाद क्या होता है, इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था. मैं निराश हो चुका था.

मेरे पास डीएम गौतमबुद्ध नगर का फोन था. सुहास साहब, उनकी भी बहुत अच्छी ब्रांड है. उनको कॉल किया तो उनके पीए से बात हुई. मैंने उनको बताया कि मेरे घर में एक कोरोना सस्पेक्ट है और कोई भी नम्बर नहीं मिल रहा है, ये क्या सिस्टम बना रखा है, तो उनका कहना था कि इसमें हम क्या करें, ये तो हैल्थ डिपार्टमेंट का काम है तो आप सीएमओ से बात कर लो. मैंने उनसे कहा कि आप मुझे सीएओ का नम्बर दे दो. उन्होंने कहा, मेरे पास सीएमओ का नंबर नहीं है. यह अपने आप में बड़ा ही फ्रस्टेटिंग था कि डीएम के ऑफिस के पास सीएमओ का नम्बर नहीं है, या डीएम के पीए को इस तरह से ट्रेन किया गया है कि कोई फोन करे तो उसे सीएमओ से बात करने को कहा जाए. 

बहुत आर्ग्युमेंट करने के बाद उन्होंने मुझे डीएम के कंट्रोल रूम का नंबर दे दिया कि आप वहां से ले लो. फिर मैं इतना परेशान हो चुका था कि डीएम के कंट्रोल रूम को फोन करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, फिर मैंने खुद ही इंटरनेट पर नंबर ढूंढ कर निकाला. इसके बाद मैंने सीएमओ को कॉल किया. सीएमो को कॉल करने के बाद वहां से भी कोई सही जवाब नहीं मिला, उन्होंने कहा, इसमें हम क्या कर सकते हैं आप 108 पर एंबुलेंस को कॉल कर लो. और एंबुलेंस को ये बोलना कि हमें कासना ले चलो. वहीं हमने कोरोनावायरस का आइसोलेशन वार्ड बनाया हुआ है. जबकि मीडिया में दिन रात यह देखने को मिलता है कि नोएडा में कोरोना के इतने बड़े-बड़े अस्पताल हैं, फाइव स्टार आइसोलेशन वार्ड हैं वगैहरा लेकिन फिर भी उन्होंने हमें ग्रेटर नोएडा में कासना जाने को कहा. 

फिर बहुत मुश्किल से 108 पर कॉल मिला और फिर घंटे भर की जद्दोजहद के पास 108 के कॉलसेंटर पर बैठे व्यक्ति ने एक एंबुलेंस फाइनल करवाया. जब मेरे पास एंबुलेंस आई उस समय रात के 10 बज चुके थे. मैं शाम के सात बजे से इस पूरी प्रक्रिया में लगा था. यूपी का लॉ एंड ऑर्डर देखते हुए रात के दस बजे मैं अपनी वाइफ को अकेले नहीं जाने दे सकता था. मेरे घर में 15 महीने की एक छोटी बेटी भी है और घर में केवल एक मेरा एक भाई ही था जिसे बच्चों की केयर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, फिर भी मैं अपनी बच्ची को उसके पास छोड़कर वाइफ के साथ एंबुलेंस में बैठ गया और वहां से आगे निकले.

आगे बढ़ने के बाद ड्राइवर ने बोला कि हम ग्रेटर नोएडा नहीं जा सकते, मुझे खाना भी है, मैंने चार दिन से खाना नहीं खाया और वो बहुत अजीब व्यहवार करने लगा. फिर वो हमें किसी गांव में ले गया, वहां से उसने अपना खाना और कपड़ा लिया और फिर वहां से दूसरा रूट लेते हुए हमें वो ग्रेटर नोएडा लेकर गया. हमें गवर्नमेंट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ में हमें ले जाया गया. वहां एक कम डॉक्टर मिलीं जो ट्रेनी ही लग रहीं थीं, उन्होंने दूर से ही वाइफ से पूछा कि आपको क्या सिमटम हैं, वाइफ ने अपने सिमटम बताए, तो उन्होंने कहा कि आप दोनों को कोरोना का टेस्ट करना पड़ेगा. रिपोर्ट 48 घंटे में आ जाएगी. और अगर आप कोरोना का टेस्ट करवाते हैं तो आपको आईसोलेट होना पड़ेगा. 

मैंने कहा कि मेरे लिए यह संभव नहीं है, मेरी 15 महीने की बच्ची है, मुझे वापस जाना पड़ेगा, आप बस मुझे वापस भिजवा दो. उन्होंने कहा कि हम वापस नहीं भिजवा सकते हैं. और अगर आप आइसोलेट नहीं होना चाहते हैं तो आप यहीं कहीं बाहर रात गुजार लो सुबह देख लेना आप कैसे वापस जाओगे. यह लॉकडाउन की सिचुएशन की बात है जिसमें कोई भी आने जाने का साधन सड़क पर नहीं मिलता है. 

अचानक से उन्होंने किसी को कॉल किया और उधर से किसी मैडम से उनकी बात हुई और उन्होंने फोन पर कहा कि नहीं हम हस्बैंड को नहीं जाने दे सकते क्योंकि वो भी एंबुलेंस में साथ में आए हैं. मैंने उनसे कहा कि 48 घंटे तो मेरा भाई मैनेज कर लेगा लेकिन आप पक्का बताइए कि 48 घंटे में रिपोर्ट आ जाएगी? इस पर उन्होंने कहा कि हां 48 घंटे में रिपोर्ट आ जाएगी आप अपना सैंपल दे दो. रात को ही हमारी सैंपलिंग हो गई और फिर से हमें एंबुलेंस में बिठाला गया. 

एंबुलेंस में हमें तीन और सस्पेक्ट्स के साथ बिठाला गया और इसके पूरे चांस थे कि अगर मुझे कोरोना नहीं भी होता और उन तीनों में से किसी को होता, तो मुझे और मेरी बीवी को भी कोरोना हो जाता. एक एबुंलेंस में पांच लोगों को पास-पास बिठाया गया. उनकी सैंपलिंग भी हमारे आस-पास ही हुई थी. इसके बाद हमें वहां से दो तीन किलोमीटर दूर एससीएसटी हॉस्टल मे आइसोलेशन में ले जाया गया. 

मेरी सैंपलिंग होने के बाद भी ना मुझे कोई ट्रैकिंग नंबर दिया गया, ना मेरा कोई रिकॉर्ड मुझे दिया गया कि मैं कहां हूं मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी. इसके पास मेरी वाइफ को लेडीज वार्ड भेज दिया गया और मुझे जेंट्स वार्ड. जेंट्स और लेडीज़ दोनों का वॉशरूम कॉमन था. जब मुझे मेरा रूम दिया गया तो वहां चारपाई पर बेडशीट के नाम पर एक पतला सा कपड़ा पड़ा हुआ था और दूसरा कपड़ा मुझे दिया गया और बोला गया कि आप पुराना बेडशीट हटा कर ये बिछा लेना. 

रात के एक बज रहे थे, जो खाना मुझे दिया गया वो खराब हो चुका था, लेकिन मैंने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया मैं बिना खाए वैसे ही सो गया. उसके बाद मैं सुबह उठा मुझे फ्रेश होना था, मैं नीचे गया और हाथ धोने के लिए साबुन मांगा. मुझे जवाब मिला कि पानी से ही हाथ धो लेना. सैनिटाइजेशन के नाम पर जीरो था वो आइसोलेशन सेंटर. चारों तरफ कूड़ा फैला पड़ा था. 

मुझे एक -दो घंटे कह कर पूरे दिन साबुन का इंतजार करवाया गया लेकिन मुझे साबुन नहीं मिला. इस चक्कर में ना मैंने खाना खाया औ ना मैं फ्रेश हो पाया. मैंने सोचा कि केवल 48 घंटे की बात है, काट लेंगे. अगले दिन जब मैं फिर गया साबुन मांगने तो फिर मुझे आधे घंटे में साबुन आ रहा है कह कर टाल दिया गया. करीब 12 बजे मेरी उनसे बहस हो गई तो उन्होंने अपने लिक्विड सोप में से थोड़ा सा मुझे एक कप में दिया तब जाकर मैं फ्रेश हो पाया और मैंने खाना खाया. 

वहां बिना कपड़ों और सफाई के हालत खराब हो रही थी, 48 घंटे के बाद मैं पूछने गया तो मुझे बताया कि इतनी जल्दी नहीं आती है रिपोर्ट 3-4 दिन इंतजार करना होगा. वहां उन्होंने बाउंसर टाइप कुछ लोग भी बिठा रखे हैं ताकि कोई ज्यादा सवाल जवाब ना करे. वहां मैंने देखा कि वहां चाहें आप नेगेटिव हो या पॉजिटिव हो किसी की भी 7-8 दिन से पहले रिपोर्ट नहीं आती है. 

हर हाल में मरना है, सरकार आपके लिए वहां कुछ नहीं कर रही है. केवल आपको आइसोलेशन वार्ड में डाल दिया जाता है कि केवल सरकार की नाकामी छिप जाए. देट्स इट. वहां पर 80% लोग जमात और मरकज वाले और उनके संपर्क वाले लोग थे. उनका भी यही हाल था. उनकी भी रिपोर्ट नहीं बताई जा रही थी. करीब 72 घंटे बाद जब मैंने दोबार पूछा कि मेरी रिपोर्ट नहीं आ रही है तो वहां पर मौजूद एक व्यक्ति ने कहा कि हमें नहीं पता होता है कि आपकी रिपोर्ट कब आएगी. हमें केवल इतना पता है कि आपको यहां से जाने नहीं देना है जब तक आपकी रिपोर्ट नहीं आ जाती है. मुझे लग रहा था कि उनके पास कोई इंफॉर्मेशन नहीं थी, कोई ट्रैकिंग की व्यवस्था नहीं थी. जो पहले आ रहा था वो बाद में जा रहा था, जो बाद आ रहा था वो पहले जा रहा था. 

मैंने दोबारा डीएम के नंबर पर कॉल करना शुरू किया, फिर वो स्विच ऑफ हो गया और फिर वो आज तक वो नंबर बंद है, शायद नंबर बदल लिया है. फिर मैंने नोएडा के सीएमओ को कॉल करना शुरू किया, उन्होंने कॉल नहीं उठाया. मैंने मैसेज किया कि मेरी 15 महीने की बेटी है जो मदर फीड पर है और फिलहाल मेरे भाई के साथ अकेली है, मुझे आपसे मदद चाहिए. लेकिन वहां से भी कोई जवाब नहीं आया. मुझे समझ नहीं आताा कि कोरोनावायरस के इतने क्रूशियल समय में आप कैसे 5-6 दिन में रिपोर्ट दे सकते हैं! 

सीएमओ ने मेरा मैसेज पढ़ा और फिर मेरा नंबर ब्लॉक कर दिया. फिर मैंने डिप्टी सीएमओ को भी कॉल किया लेकिन फोन नहीं उठा. मैंने काफी हाथ-पैर मारे, मेरा फ्रस्ट्रेशन बहुत बढ गया था. एक डॉक्टर आते हैं वहां नाइट ड्यूटी पर, उन्होंने कहा कि मेरे पास कोई इंफॉर्मेशन नहीं हैं यहां पर मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता, आप मुझसे कल सुबह बात करना. मेरे साथ ही एक और लड़का आइसोलेट हुआ था, गंदगी और गर्मी के कारण वो कल मेरे सामने बेहोश हो गया. कोई उसे उठाने, उसे छूने के लिए, उसके पास जाने को राजी नहीं था. वहां किसी भी पेशेंट की तबियत खराब हो रही थी तो कोई उसके पास नहीं जा रहा था. अगर किसी को फीवर है तो पैरासिटामोट देकर वार्ड के अंदर चुपचाप सोने को कहा जा रहा था. सीढियों के पास इतना कूड़ा इकठ्ठा हो रहा था कि बदबू के मारे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था. सब केवल अपनी औपचारिकता कर रहे थे वहां. बड़े अधिकारी जो वहां विजिट कर रहे थे वो बाहर से ही बाहर निकल जा रहे थे, अंदर आकर हालात जानने की कोशिश किसी ने नहीं की.

आखिरकार कल शाम तक जब मेरी रिपोर्ट नहीं आई और मेरे साथ वालों की आ गई तो मैंने उनसे फिर पूछा कि मेरी रिपोर्ट क्यों नहीं आई अभी तक. क्यों कोई ट्रेकिंग सिस्टम नहीं है, क्यों किसी को कुछ पता नहीं है. तो उनका वही रटा रटाया जवाब मिला कि हम केवल आइसोलेट करके रखते हैं, हमें इसके अलावा और कोई जानकारी नहीं है. जब रिपोर्ट आएगी आप तभी यहां से जाओगे.

इसके बाद मेरी वाइफ का फोन आया कि उन्होंने सुना है कि लेडीज को कहीं और शिफ्ट कर रहे हैं, किसी और जगह ले जाएंगे. मैं अपनी वाइफ के साथ नीचे गया और पता चला कि लेडीज को गलगोटिया यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में आइसोलेशन वार्ड में शिफ्ट कर रहे हैं. मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी वाइफ को अकेले नहीं जाने दूंगा. वरना अगर इन्हें कुछ भी होता है तो आप रेस्पोंसिबल होगे. फिर उन्होंने मेरी बात मानी और कहा कि आपको भी इनके साथ भेज देंगे और फिर उन्होंने मुझे बाहर बुला लिया. बाहर बुलाने के बाद में उन्होंने मेरे हाथ में पर्ची पकड़ाई कि ये इस वार्ड से उस वार्ड में आपका ट्रांसफर स्लिप है. 

मैंने पर्ची को देखा तो उसमें पहली लाइन में मुझे लिखा दिखा कि "मृत्युंजय कोविड -19 नेगेटिव". इस पर मैंने उनसे कहा कि अरे जब मेरी रिपोर्ट आई हुई है तो आप मुझे दूसरे वॉर्ड में क्यों भेज रहे हो. इस पर उन्होंने मेरे हाथ से पर्ची ले ली और कहा कि शायद कोई गलती हो गई है. इतने गैरजिम्मेदार लोग हैं वहां पर. फिर उन्होंने क्रॉसवेरिफाई किया और बाहर आकर कहा कि हां आपकी रिपोर्ट आ गई है. आपकी रिपोर्ट नेगेटिव है. आपकी वाइफ की रिपोर्ट नहीं आई है. इन्हें जाना पड़ेगा. आप इस एंबुलेंस में बैठो, आपकी वाइफ दूसरी एंबुलेंस में बैठेंगी. 

मैंने उनसे सवाल किया कि मेरी वाइफ की सैंपलिंग मेरे से पहले हुई थी तो ऐसा कैसे पॉसिबल है कि मेरी रिपोर्ट आ गई लेकिन मेरी वाइफ की नहीं आई? मैंने सोचा ज़रूर कुछ गलती है. मैंने एंबुलेंस रुकवा दी कि मैं बिना जानकारी के नहीं जाने दूंगा. फिर वो दो स्टाफ के साथ अंदर गए और फिर कुछ देर बाद बाहर आकर बताया कि हां आपकी वाइफ का भी नेगेटिव आया है. वहां कोई प्रोसेस, कोई सिस्टम नहीं है, जिसके जो मन आ रहा है वो किए जा रहा है. किसी को नहीं पता कि चल क्या रहा है. फिर उन्होंने कहा कि आप दोनों अब घर जा सकते हो. वापस आते हुए भी एंबुलेंस में पांच और लोग साथ में थे. 

वहां हाइजीन की खराब स्थिति के कारण पूरे चांस हैं कि अगर आपको कोरोना नहीं भी है आइसोलेशन वार्ड या एंबुलेंस में आपको कोरोना हो जाए. अगर आपको कोरोना नहीं भी है तो आप वहां से नहीं बच सकते हो. पहले एंबुलेंस ड्राइवर ने हमें कहा कि वो नोएडा सेक्टर 122 हमें छोड़ देगा. लेकिन हमें निठारी छोड़ दिया गया. हमसे कहा गया कि आप यहां पर वेट करो , मैं दूसरी सवारी को छोड़ने जा रहा हूं. 102 नंबर की गाड़ी आएगी वो आपको लेकर जाएगी.

वहां आधा घंटा इंतजार करने के बाद जब मैंने वापस कॉल की और पूछा कि कब आएगी गाड़ी किया तो उन्होंने कहा कि हमारी जिम्मेदारी यहीं तक की थी. आगे आप देखो. फिर हम वहां और खड़े रहे. लगभग आधा घंटा और बीता और बीता और जो एंबुलेंस का ड्राइवर हमें छोड़ कर गया था वो वापस लौटा. हमें वहीं खड़ा देख कर रुक गया. कहने लगा कि अरे बाबूजी मैं क्या करुं मैं तो खुद परेशान हूं चार दिन से खाना नहीं खाया है, हालत खराब है. मेरे सामने ही उसने वीड मारी और कहने लगा कि 12 से ऊपर हो रहे हैं आप काफी परेशान हो, मैं आपको छोड़ देता हूं.

एंबुलेंस ड्राइवर अपने दो-तीन साथियों के साथ एंबुलेंस में बैठा और फिर वो रात के 1 बजे मेरी सोसाएटी से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर ही वो मुझे छोड़ कर चला गया. यह कहानी बहुत कम करके मैंने बताई है कि क्या सिस्टम जमीन पर है और क्या मीडिया में दिखता है. जब आप ग्राउंड लेवल पर आते हो तो कोई रेस्पोंसिबल नहीं है आपकी हैल्थ के लिए, आपकी सिक्योरिटी के लिए, आपके कंसर्न के लिए और आपकी जान के लिए.

Monday, July 6, 2020

फर्जी एनकाउंटर पर यूपी पुलिस के एक पूर्व डीआईजी का ये अनुभव वाकई पढ़ने लायक है!



- बद्री प्रसाद सिंह
अहमक अपने तथा दानिश दूसरों के अनुभव से सीखता है। यह लेख दानिशमंदों (बुद्धिमानों) को समर्पित है जिसे मुझ जैसे अहमक ने अपने तजुर्बे से जाना है। वैसे तो हर विभाग अपने नियमों से चलता है लेकिन पुलिस विभाग में नियम तोड़ने के लिए ही बने हैं। बरतानिया हुकूमत में पुलिस परम स्वतंत्र व बेलगाम थी, जो कर दिया वहीं नियम था। जनता प्रश्न नहीं करती थी, लेकिन अब जनता जाग रही है और कभी कभी इसका एहसास भी करा रही है। पुलिस विभाग की कुछ बड़ी घटनाएं आपके संज्ञान में लाना चाहता हूं जिसमें कानून को भुलाया गया था।

वर्ष 1982 में गोंडा में Dy SP केपी सिंह, डकैत राम भुलावन उर्फ मुड़कटवा के साथ रात्रि में हुई मुठभेड़ में शहीद हुए और पुलिस ने मुड़कटवा समेत बारह को मुठभेड़ में मार गिराया जिसमें कुछ स्थानीय ग्रामीण भी थे। बाद में सुप्रीम कॉर्ट के आदेश से सीबीआई ने जांच कर दूसरी मुठभेड़ झूठी माना और सेशन कोर्ट ने दोषी पुलिस दल को आजीवन कारावास से दंडित किया।

वर्ष 1987 में मेरठ में हुए साम्प्रदायिक दंगे के समय दर्जनों व्यक्ति गाजियाबाद की नहर में मरे मिले। सीबीआई जांच में पता चला कि वे मेरठ के मुसलमान थे जिन्हे पुलिस/पीएसी ने दंगे में हत्या कर वहां फेंक दिया था। सीबीआई जांच के बाद दोषियो के विरुद्ध आरोप पत्र लगाया। वर्ष 1991 में पीलीभीत पुलिस ने मुठभेड़ में दस सिख आतंकियों को मारा गिराया। सरकार व जनता में वाहवाही हुई। हाईकोर्ट के जज ने न्यायिक जांच में मुठभेड़ सही पाया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई सीबीआई जांच में पुलिस बल दोषी पाया गया और सेशन कोर्ट ने 45 पुलिस कर्मी, जिसमें दो DyDP भी हैं, को 2016 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई और सभी आज भी लखनऊ जेल में चक्की पीस रहे हैं।

‌‌सिख आतंकवाद से लड़ने में केपीएस गिल के समय पंजाब पुलिस ने कानून से हट कर आतंकियों का सफाया किया, देश ने राहत की सांस ली लेकिन बाद में शिकायत होने पर ऐसे अधिकांश मामलों में जांच के बाद पुलिस को कटघरे में खड़ा किया गया, बहुतों को सजा भी मिली। जांबाज पुलिस अधीक्षक तरनतारन, अजीत सिंह संधू ने तो गिरफ्तारी से बचने के लिए आत्महत्या कर ली।

केपी सिंह मेरे विश्वविद्यालय के समय से मित्र थे, मेरठ में मैं बाद में SSP रहा, पीलीभीत में मैं तब सिख आतंकवाद विरोधी अभियान का प्रभारी था और सीबीआई मुख्यालय में चार दिन तक मैं पूछताछ हेतु रखा गया था। आतंकवाद के कारण परिचित पंजाब पुलिस के बहुत से अधिकारी का हाल मैं जानता हूं जो देशसेवा करने में निपट गये।

ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमें पुलिस कर्मियों को कानून से अलग कार्यवाही करने में प्रताड़ना या सजा मिली। सोचिए, जब पुलिस कर्मी के खिलाफ मुकदमा कायम होता है, निलम्बित होते हैं न्यायालय में मुकदमा चलता है या सजा होती है, पेंशन रुकती है तो उस पर, उसके परिवार पर क्या गुजरती है। वे सब सामाजिक आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से टूट जाते हैं, उनका हाल पूछने वाला, मदद करने वाला कोई नहीं होता। तब ज्ञान आता है कि उन्होने कानून से बाहर जाकर काम क्यों किया।

मैं 2003-4 में SSP मेरठ था। मैंने अपनी पहली अपराध गोष्ठी में पुलिस को फर्जी मुठभेड़ करने से स्पष्ट मना कर दिया था। DG नायर साहब सर्किट हाउस में आए थे, उनसे व्यापार मंडल ने मेरी शिकायत की कि मेरठ में मुठभेड़ में बदमाश नहीं मर रहें हैं। मैंने तत्काल जवाब दिया कि जब तक मैं SSP हूं, फर्जी मुठभेड़ नहीं होगी। नायर साहब नाराजगी में हाल से उठ कर कमरे में चले गए। मैं, डीआईजी, आईजी भी साथ हो लिए। वहां हमारी इस पर लम्बी बहस हुई। अंत में डीआईजी श्री चन्द्रभाल राय सर ने मेरी जबरजस्त वकालत करते हुए मेरे कार्य की सराहना कर कहा कि उनके रेंज के जिन जिलों में मुठभेड़ हो रही है उनके अपराध अनियंत्रित हैं, पुलिसिंग लचर है और मुझे अपना कार्य कानूनी ढंग से करने दिया जाय। IG श्री RK तिवारी जी ने भी डीआईजी का पूर्ण समर्थन किया।

एक दिन मेरठ के सदर थाने में पांच बदमाश इत्तफाकन पकड़े गए। सीओ के बुलावे पर जब थाने जाकर पूछताछ की तो पता चला कि वह बैंक डकैतों का गिरोह था। सभी 20-22 वर्ष के खतौली के युवा जाट थे और किसी का अपराधिक इतिहास नहीं है। उन्होंने UP तथा उत्तराखंड की पांच बैंक डकैती स्वीकार की। यह सूचना जब मैंने ADG कानून व्यवस्था को बताई तो वह तत्काल मुठभेड़ हेतु अड़ गए, जिसे मैंने दृढ़ता से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने मुझे अमृत बचन सुनाये, कायर-नपुंसक आदि विशेषणों से नवाज कर फोन पटक दिया। मैने‌ DG को भी बताया, उनकी भी इच्छा धमाका करने की थी, मैंने विनम्रता से मना कर दिया। 

संयोग से हम तीनों सीबीआई जांच झेल चुके थे। दोनों को मैंने सीबीआई जांच की याद भी दिलाई। यदि मैं मुठभेड़ कराता तो बदमाशों की स्वीकारोक्ति के अलावा मेरे पास कोई साक्ष्य नहीं था परन्तु उनके मरने के बाद वह साक्ष्य भी न बचता, डकैतियां पुरानी थी, बरामदगी शून्य थी, अपराधिक इतिहास नहीं था, कोई हमारी बात न मानता। मेरी तो खटिया खड़ी हो जाती, बड़ा आन्दोलन होता, मुकदमा चलता सो अलग।

इसलिए हे सुधी जन एवं मूर्ख पुलिस भाइयों, पुलिस ने समाज सुधारने का, अपराध समाप्त करने का ठेका नहीं लिया है, और न हम सुपारी किलर हैं। जब सत्ता दल एवं विपक्ष में अपराधी पालने की होड़ लगी है, कोई भी शरीफ गवाही देने के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता, अपराधी के वकील की दहाड़ के सामने सरकारी वकील मिमियाता है, न्यायालय में सजा नियम नहीं अपवाद है, पुलिस अपने कानून की लक्ष्मण रेखा न लांघे अन्यथा उसका भगवान ही मालिक है। यदि कानून के पालन से समाज न सुधरा तो जनता पुलिस को कानून के द्वारा अतिरिक्त शक्ति देगी, तब तक वह संयम रखे एवं अपनी आन्तरिक कमियां दूर करें। (लेखक रिटायर्ड आईजी यूपी पुलिस हैं )

Friday, July 3, 2020

कानपुर में 2 जुलाई की रात जो हुआ वैसा अब तक वेबसीरीज और फिल्मों में ही देखने को मिलता था



-गिरीश मालवीय

माफ कीजिए ! ये राम राज्य नही है यह जंगलराज है और यही असली जंगलराज है हम यूपी की ही बात कर रहे हैं जहाँ कानपुर के बिठूर थाना क्षेत्र में कल रात एक 25 हजार के इनामी बदमाश को पकड़ने गए पुलिस दल पर हमला होता है और एक डीएसपी, तीन सब इंस्पेक्टर, और चार सिपाहियों को अपराधियों की गैंग गोलियो से भून देती है यानी इस हौलनाक घटना में 8 पुलिस कर्मियों की मौत हुई है इसके अलावा स्थानीय थाना प्रभारी समेत 6 पुलिसकर्मी गोली लगने से घायल है ओर जिस तरीके से हमला हुआ, उससे आशंका है कि  बदमाशों को पुलिस की दबिश की भनक मिल गई थी। जिस कारण उन्होंने तैयारी करके पुलिस पर हमला किया। पुलिस को रोकने के लिए बदमाशों ने पहले से ही जेसीबी वगैरह से रास्ता रोक रखा था। अचानक छत से फायरिंग शुरू कर दी गई। अब तक जो फिल्मो ओर वेबसीरिज आदि में देखा था अब वह प्रत्यक्ष घटित हो रहा है।

जिस विकास दुबे को ये गिरफ्तार करने गए थे वह कोई छोटा मोटा अपराधी नही था विकास दुबे उत्तरप्रदेश का कुख्यात बदमाश है। उसने 2001 में थाने में घुसकर भाजपा नेता और राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या की थी। वह पहले भी थाने में घुसकर पुलिसकर्मी समेत कई लोगों की हत्या कर चुका है। विकास पर 60 से ज्यादा मामले दर्ज हैं। वह प्रधान और जिला पंचायत सदस्य भी रह चुका है। इसके खिलाफ 52 से ज्यादा मामले यूपी के कई जिलों के थानों में चल रहे हैं। 

विकास दुबे की यूपी के सभी राजनीतिक दलों में अच्छी पकड़ बताई जाती है, संतोष शुक्ला के मर्डर के बाद पुलिस इसके पीछे पड़ गई। कई माह तक ये फरार रहा और तब सरकार ने इसके सिर पर पचास हजार का इनाम घोषित कर दिया। पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने के डर के चलते ये अपने खास भाजपा नेताओं की शरण में गया। जहां उन्होंने अपनी कार में बैठाकर इसे लखनऊ कोर्ट में सरेंडर करवाया। कुछ माह जेल में रहने के बाद इसकी जमानत हो गई विकास दुबे वर्तमान में भाजपा के साथ ही जुड़ा था, लेकिन इसी दल के एक विधायक से इसकी नहीं पट रही थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि 2017 में लखनऊ में एसटीएफ ने गिरफ्तार कर लिया था लेकिन यूपी सरकार की लापरवाही की वजह से इसे फिर से जमानत मिल गयी और जेल से निकलने के बाद वह फिर से बड़े बड़े  अपराध करने लगा, विकास दुबे के खिलाफ कानपुर के राहुल तिवारी ने हत्या के प्रयास का केस दर्ज कराया था। इसके बाद पुलिस उसे पकड़ने के लिए बिकरू गांव गई थी जहाँ कल रात को यह लोहमर्षक घटना हुई है।
साफ दिख रहा है कि योगी आदित्यनाथ के राज्य में अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वह खुलेआम 8 पुलिस कर्मियों की हत्या कर देते हैं यह घटना राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देती है।

Thursday, June 25, 2020

उन्नाव: यूपी पुलिस ने पत्रकार शुभम की गुहार नहीं सुनी, अगले दिन उसे गोली मार दी गई

- श्याम मीरा सिंह

उन्नाव के रहने वाले पत्रकार शुभम मणि त्रिपाठी Unfortunately अब दुनिया में नहीं रहे. शुभम जब बाइक से अपने घर के लिए लौट रहे थे तब उन्नाव में ही गंगाघाट नाम की एक जगह पर इनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. हत्या क्यों की गई इसके पीछे एक पूरी कहानी हैं. "कम्पू मेल" नाम से कानपुर में एक अखबार निकलता है. शुभम उसी में काम करते थे. बीते दिनों शुभम ने उत्तरप्रदेश के एक भू माफिया पर स्टोरी की. जिसने ग्राम समाज जमीन पर कब्जा किया हुआ था. लोकल अखबारों में लोकल खबरें ही छपती हैं. इनका असर भी गम्भीर स्तर पर पड़ता है. शुभम इस स्टोरी से पहले भी ग्राम समाज जमीन के बारे में सोशल मीडिया पर लिखते थे. जिस पर स्टोरी की थी उसका नाम दिव्या अवस्थी है. 

स्थानीय खबरों के अनुसार दिव्या अवस्थी को "लेडी डॉन" भी कहा जाता है. स्टोरी लिखे जाने के बाद से ही शुभम को लेडी डॉन की तरफ से धमकी आने लगी थीं. 14 जून को शुभम ने अपनी फेसबुक पर लिखा कि भूमाफिया ने किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसपर एक फर्जी FIR करा दी गई है. इसके दो दिन बाद यानी 16 जून को शुभम ने इस बाबत फेसबुक पर लिखा कि उसकी जान के लिए सुपारी दी जा रही हैं. हालांकि ये हास्य तरीके से लिखी एक पोस्ट थी, जिसमें सुपारी की बात को गम्भीरता से नहीं कहा गया था. लेकिन शुभम को इस बात का भान तो पहले ही हो गया था कि उसकी जान को खतरा है. जिस दिन पत्रकार शुभम की हत्या की गई है, उसके ठीक एक दिन पहले ही शुभम ने उत्तरप्रदेश के अधिकारियों को मेल करके सूचित किया था कि अमुक भूमाफिया द्वारा उसे जान से मारे जाने की धमकी दी जा रही हैं। लेकिन प्रशासन की तरफ से कोई भी मदद शुभम को नहीं मिली. अगले दिन पत्रकार शुभम की गोली मारकर हत्या कर दी गई. 

सम्भव है इस खबर में कुछ और बही एंगल निकलें, लेकिन सरेआम एक पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर देना बता रहा है कि उत्तरप्रदेश में पुलिस व्यवस्था की क्या हालत है, जहां अन्य देशों की पुलिस का काम पत्रकारों को सुरक्षा मुहैया कराने का होता है, वहीं उत्तरप्रदेश पुलिस और प्रशासन का पूरा जोर पत्रकारों को दबाने पर होता है. आपको मालूम नहीं कि कब पुलिस आपकी एक फेसबुक पोस्ट की वजह से आपको घर से उठा ले जाए. आपको मालूम नहीं है कि कब आपकी एक फेसबुक पोस्ट की वजह से, आपकी एक स्टोरी की वजह से, गोली मार दी जाए. 

एक हफ्ते पहले ही स्क्रॉल नामक एक संस्थान की एक पत्रकार ने नरेंद्र मोदी द्वारा गोद लिए हुए एक गांव की भुखमरी पर स्टोरी की गई. उत्तरप्रदेश प्रशासन ने उस खबर पर संज्ञान लेने के बजाय उल्टा पत्रकार पर ही FIR दर्ज कर ली. कोविड-19 के दौर में ही 50 से अधिक पत्रकारों को या तो गिरफ्तार कर लिया गया है या उनके खिलाफ FIR दर्ज की गई हैं. पत्रकारों के लिए ये समय सच में बेहद संवेदनशील है.

वैसे तो किसको नहीं पता है कि ये उत्तरप्रदेश है, 3,4 महीने जेल में रहने के बाद, लाख-दो लाख रुपए में ही अपराधियों को छोड़ दिया जाता है. फिर भी उत्तरप्रदेश सरकार से अपील है, जिसकी कि बहुत कम उम्मीद है, जल्दी से जल्दी शुभम के हत्यारों को जेल में पहुंचाए.

Saturday, March 3, 2012

Uttar Pradesh

Kamal Khan (Lucknow)
Resident Editor, NDTV India, 
Contact no. 9415014140
Email: kamalkhanndtv@gmail.com
Birthday: April 20 

Nishant Chaturvedi (Noida)
Anchor/Executive Producer 
India TV, Noida 
Email: mail.nishant000@gmail.com
Blog: nishantchaturvedisworld.blogspot.in 
Date of birth: September 5, 1979