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फर्जी एनकाउंटर पर यूपी पुलिस के एक पूर्व डीआईजी का ये अनुभव वाकई पढ़ने लायक है!



- बद्री प्रसाद सिंह
अहमक अपने तथा दानिश दूसरों के अनुभव से सीखता है। यह लेख दानिशमंदों (बुद्धिमानों) को समर्पित है जिसे मुझ जैसे अहमक ने अपने तजुर्बे से जाना है। वैसे तो हर विभाग अपने नियमों से चलता है लेकिन पुलिस विभाग में नियम तोड़ने के लिए ही बने हैं। बरतानिया हुकूमत में पुलिस परम स्वतंत्र व बेलगाम थी, जो कर दिया वहीं नियम था। जनता प्रश्न नहीं करती थी, लेकिन अब जनता जाग रही है और कभी कभी इसका एहसास भी करा रही है। पुलिस विभाग की कुछ बड़ी घटनाएं आपके संज्ञान में लाना चाहता हूं जिसमें कानून को भुलाया गया था।

वर्ष 1982 में गोंडा में Dy SP केपी सिंह, डकैत राम भुलावन उर्फ मुड़कटवा के साथ रात्रि में हुई मुठभेड़ में शहीद हुए और पुलिस ने मुड़कटवा समेत बारह को मुठभेड़ में मार गिराया जिसमें कुछ स्थानीय ग्रामीण भी थे। बाद में सुप्रीम कॉर्ट के आदेश से सीबीआई ने जांच कर दूसरी मुठभेड़ झूठी माना और सेशन कोर्ट ने दोषी पुलिस दल को आजीवन कारावास से दंडित किया।

वर्ष 1987 में मेरठ में हुए साम्प्रदायिक दंगे के समय दर्जनों व्यक्ति गाजियाबाद की नहर में मरे मिले। सीबीआई जांच में पता चला कि वे मेरठ के मुसलमान थे जिन्हे पुलिस/पीएसी ने दंगे में हत्या कर वहां फेंक दिया था। सीबीआई जांच के बाद दोषियो के विरुद्ध आरोप पत्र लगाया। वर्ष 1991 में पीलीभीत पुलिस ने मुठभेड़ में दस सिख आतंकियों को मारा गिराया। सरकार व जनता में वाहवाही हुई। हाईकोर्ट के जज ने न्यायिक जांच में मुठभेड़ सही पाया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई सीबीआई जांच में पुलिस बल दोषी पाया गया और सेशन कोर्ट ने 45 पुलिस कर्मी, जिसमें दो DyDP भी हैं, को 2016 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई और सभी आज भी लखनऊ जेल में चक्की पीस रहे हैं।

‌‌सिख आतंकवाद से लड़ने में केपीएस गिल के समय पंजाब पुलिस ने कानून से हट कर आतंकियों का सफाया किया, देश ने राहत की सांस ली लेकिन बाद में शिकायत होने पर ऐसे अधिकांश मामलों में जांच के बाद पुलिस को कटघरे में खड़ा किया गया, बहुतों को सजा भी मिली। जांबाज पुलिस अधीक्षक तरनतारन, अजीत सिंह संधू ने तो गिरफ्तारी से बचने के लिए आत्महत्या कर ली।

केपी सिंह मेरे विश्वविद्यालय के समय से मित्र थे, मेरठ में मैं बाद में SSP रहा, पीलीभीत में मैं तब सिख आतंकवाद विरोधी अभियान का प्रभारी था और सीबीआई मुख्यालय में चार दिन तक मैं पूछताछ हेतु रखा गया था। आतंकवाद के कारण परिचित पंजाब पुलिस के बहुत से अधिकारी का हाल मैं जानता हूं जो देशसेवा करने में निपट गये।

ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमें पुलिस कर्मियों को कानून से अलग कार्यवाही करने में प्रताड़ना या सजा मिली। सोचिए, जब पुलिस कर्मी के खिलाफ मुकदमा कायम होता है, निलम्बित होते हैं न्यायालय में मुकदमा चलता है या सजा होती है, पेंशन रुकती है तो उस पर, उसके परिवार पर क्या गुजरती है। वे सब सामाजिक आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से टूट जाते हैं, उनका हाल पूछने वाला, मदद करने वाला कोई नहीं होता। तब ज्ञान आता है कि उन्होने कानून से बाहर जाकर काम क्यों किया।

मैं 2003-4 में SSP मेरठ था। मैंने अपनी पहली अपराध गोष्ठी में पुलिस को फर्जी मुठभेड़ करने से स्पष्ट मना कर दिया था। DG नायर साहब सर्किट हाउस में आए थे, उनसे व्यापार मंडल ने मेरी शिकायत की कि मेरठ में मुठभेड़ में बदमाश नहीं मर रहें हैं। मैंने तत्काल जवाब दिया कि जब तक मैं SSP हूं, फर्जी मुठभेड़ नहीं होगी। नायर साहब नाराजगी में हाल से उठ कर कमरे में चले गए। मैं, डीआईजी, आईजी भी साथ हो लिए। वहां हमारी इस पर लम्बी बहस हुई। अंत में डीआईजी श्री चन्द्रभाल राय सर ने मेरी जबरजस्त वकालत करते हुए मेरे कार्य की सराहना कर कहा कि उनके रेंज के जिन जिलों में मुठभेड़ हो रही है उनके अपराध अनियंत्रित हैं, पुलिसिंग लचर है और मुझे अपना कार्य कानूनी ढंग से करने दिया जाय। IG श्री RK तिवारी जी ने भी डीआईजी का पूर्ण समर्थन किया।

एक दिन मेरठ के सदर थाने में पांच बदमाश इत्तफाकन पकड़े गए। सीओ के बुलावे पर जब थाने जाकर पूछताछ की तो पता चला कि वह बैंक डकैतों का गिरोह था। सभी 20-22 वर्ष के खतौली के युवा जाट थे और किसी का अपराधिक इतिहास नहीं है। उन्होंने UP तथा उत्तराखंड की पांच बैंक डकैती स्वीकार की। यह सूचना जब मैंने ADG कानून व्यवस्था को बताई तो वह तत्काल मुठभेड़ हेतु अड़ गए, जिसे मैंने दृढ़ता से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने मुझे अमृत बचन सुनाये, कायर-नपुंसक आदि विशेषणों से नवाज कर फोन पटक दिया। मैने‌ DG को भी बताया, उनकी भी इच्छा धमाका करने की थी, मैंने विनम्रता से मना कर दिया। 

संयोग से हम तीनों सीबीआई जांच झेल चुके थे। दोनों को मैंने सीबीआई जांच की याद भी दिलाई। यदि मैं मुठभेड़ कराता तो बदमाशों की स्वीकारोक्ति के अलावा मेरे पास कोई साक्ष्य नहीं था परन्तु उनके मरने के बाद वह साक्ष्य भी न बचता, डकैतियां पुरानी थी, बरामदगी शून्य थी, अपराधिक इतिहास नहीं था, कोई हमारी बात न मानता। मेरी तो खटिया खड़ी हो जाती, बड़ा आन्दोलन होता, मुकदमा चलता सो अलग।

इसलिए हे सुधी जन एवं मूर्ख पुलिस भाइयों, पुलिस ने समाज सुधारने का, अपराध समाप्त करने का ठेका नहीं लिया है, और न हम सुपारी किलर हैं। जब सत्ता दल एवं विपक्ष में अपराधी पालने की होड़ लगी है, कोई भी शरीफ गवाही देने के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता, अपराधी के वकील की दहाड़ के सामने सरकारी वकील मिमियाता है, न्यायालय में सजा नियम नहीं अपवाद है, पुलिस अपने कानून की लक्ष्मण रेखा न लांघे अन्यथा उसका भगवान ही मालिक है। यदि कानून के पालन से समाज न सुधरा तो जनता पुलिस को कानून के द्वारा अतिरिक्त शक्ति देगी, तब तक वह संयम रखे एवं अपनी आन्तरिक कमियां दूर करें। (लेखक रिटायर्ड आईजी यूपी पुलिस हैं )

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