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Tuesday, July 14, 2020

क्या डॉ कफील खान को मुसलमान होने की सज़ा मिल रही है? लगता तो कुछ ऐसा ही है !



- पंकज चतुर्वेदी
मानवाधिकारों को पुलिस के जूतों के तले कुचलने का ज्वलंत मामला है कफील खान की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तारी . बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कफील खान को गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त 2017 में ऑक्सिजन की कमी के कारण 60 से अधिक बच्चों की मौत के मामले में जेल भेज दिया गया था। 


हालाँकि यह पुष्टि हुयी कि वह तो बच्चों की जान बचने के लिए अपने पैसे से अपने अस्पताल से आक्सीजन सिलेंडर ला कर दिन रात काम कर रहे थे. उस मामले में उन्हें 9 महीने जेल में काटने पड़े बाद में एक विभागीय जांच ने उन्हें चिकित्सा लापरवाही, भ्रष्टाचार के आरोपों और हादसे के दिन अपना कर्तव्य नहीं निभाने के आरोपों से मुक्त कर दिया।

उसके बाद नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके भाषण को लेकर डॉ कफील खान पर मुकदमा दर्ज किया गया था. 29 जनवरी की रात को उप्र की स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा मुम्बई एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर कफील को अलीगढ़ में मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था. जहां से पहले अलीगढ़ जिला जेल भेजा गया था तथा एक घण्टे बाद ही मथुरा के जिला कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया था. तब से वह यहीं पर निरुद्ध है।

उल्लेखनीय है कि डॉ. कफील राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत 13 फरवरी से मथुरा जेल में बंद हैं। अभी उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) की अवधि को उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से तीन महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। खान पर लगे एनएसए की अवधि 12 मई को खत्म हुयी थी लेकिन तीन महीनों की बढ़ोतरी के बाद वह 12 अगस्त तक बाहर नहीं आ सकेंगे।
हाल ही में उनका एक पत्र सार्वजनिक हुआ है जिसमें वे सवाल कर रहे हैं कि “किस बात की सज़ा मिल रही है मुझे?”—डॉक्टर कफ़ील ने पत्र में यह प्रश्न पूछा है। आखिर किस बात के लिए उन्हें अपने घरवालों से दूर कर दिया गया है। क्या सरकार को चलाने वाले लोग कभी यह नहीं सोचते होंगे कि बगैर डॉ. कफ़ील के उनके घर में ईद कैसे गुज़री होगी? आखिर कब तक डॉ. कफ़ील के घरवालों का हर रोज़ मुहर्रम में तब्दील होता रहेगा? ज़रा उनके इन शब्दों का दर्द तो महसूस कीजिए: “कब अपने बच्चे, बीबी, माँ, भाई, बहन, के पास जा पाऊँगा?”
कफील के भाई आदिल अहमद खान ने कहा कि पत्र 15 जून को कफील द्वारा लिखा गया था और 1 जुलाई को उनके पास पहुंच गया था। आदिल ने दावा किया कि पत्र डाक द्वारा भेजा गया था। घर की याद उनको ज़रूर सता रही है, मगर एक डॉक्टर के नाते वे खुद को जनता की सेवा न कर पाने की वजह से भी दुखी हैं। भारत में वैसे भी डॉक्टर और मरीज़ का अनुपात कम है। उस में भी एक बेहतरीन डॉक्टर को जेल में क़ैद कर सरकार कौन सा जनकल्याण कर रही है?

अपने पत्र के आखिरी जुमले में डॉ. कफ़ील कहते है कि “कब कोरोना की लड़ाई में अपना योगदान दे पाउँगा?” डॉ. खान अपने ख़त में लिखते हैं कि मैं “मगरिब (की नमाज़) पढ़ने के बाद ‘नावेल’ (उपन्यास) ले कर बैठ जाता हूँ। मगर वहां का माहौल ऐसा दम घुटने वाला होता है जिसे बयान नहीं किया जा सकता है। अगर बिजली चली गयी तो हम पढ़ नहीं सकते। फिर हम पसीने से सराबोर हो जाते हैं। रात भर कीड़े, मच्छर हमला करते हैं। पूरा बैरक मछली बाज़ार की तरह लगता है। कोई खास रहा है, कोई छींक रहा है, कोई पेशाब कर रहा है, कोई ‘स्मोकिंग’ कर रहा है…पूरी रात बैठ कर गुजारनी पड़ती है”।इसमें ये भी बताया गया है कि एक ही रूम कई कई लोग रहते हैं और बिजली के कटौती के कारण गर्मी इतनी तेज होती है जिसके कारण पसीने और मूत्र के गंध जीवन को नरक बना देता है। एक जीवित नरक वास्तव में ऐसा ही होता है।

डॉ. कफील का दावा है कि जेल में लगभग 150 से अधिक कैदी एक ही शौचालय साझा कर रहे हैं। वहीं उन्होंने जेल के खाने आदि की व्यवस्थाओं पर भी सवाल खड़े किए हैं। पत्र में कफील खान ने जेल में बिजली कटौती और खान-पान पर सवाल किए हैं। उन्होंने यहां सामाजिक दूरी के नियमों का पालन नहीं होना भी बताया है। कफील खान ने अपनी दिनचर्या को भी पत्र में लिखा है।

हाल के एक वीडियों में डॉ कफील खान कह रहे है कि ‘मेरे परिवार को डर है कि पुलिस मुझे एनकाउंटर में या यह बताकर ना मार दे कि मैं भाग रहा था। या ऐसा दिखाया जाएगा कि मैंने आत्महत्या कर ली।’ वीडियो में डॉक्टर कफील आगे कहते हैं, ‘अपनी आखिरी वीडियो में एक बात जरूर करना चाहूंगा कि मैं इतना बुजदिल नहीं हूं कि सुसाइड कर लूंगा। मैं कभी आत्महत्या नहीं करूंगा। मैं यहां से भागने वाला भी नहीं हूं जो ये (पुलिस) मुझे मार दें।’

पूर्वांचल का सारा इलाका जानता है कि डॉ कफील खान बच्चों का बेहतरीन डोक्टर है, सन २०१८ में जमानत पर बाहर आने के बाद डॉ कफील ने बिहार से ले कर केरल तक निशुल्क चिकित्सा शिविर लगाए -- उनका दोष बस यह है कि वे सरकार के लोगों को विभाजित करने वाले नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक पंजी एवं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मुद्दे पर सरकार से सहमत नहीं और उन्होंने उसके खिलाफ आवाज़ उठायी -- उन पर भड़काऊ भाषण का आरोप है , जो अदालत में एक मिनिट नहीं ठहर सकता सो उन पर एन एस ए लगाया गया-- इससे ज्यादा जहरीले भाषण तो कपिल मिश्र , परवेश वर्मा, रागिनी तिवारी के सोशल मिडिया पर वायरल हैं .

उत्तर प्रदेश की अमरोहा से लोकसभा सांसद कुंवर दानिश अली ने ट्वीट कर मथुरा जेल में बंद डॉ. खान को रिहा करने की मांग की। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार विकास दुबे जैसे खूंखार अपराधियों पर नरमी दिखा रही है, जबकि बच्चों की जान बचाने वाले डॉक्टर को जेल में बंद कर रखा है।

मुझे लगता है कि यदि आप एक सभी समाज का हिस्सा हैं तो खुल कर डॉ कफील को जेल में रखनी का प्रतिरोध करें-- चाहे सोशल मिडिया पर, चाहे उत्तर प्रदेश सरकार के सोशल प्लेटफोर्म पर या केक्ल अपने मन में या जाहिरा -- जान लें यदि आज चुप हो तो अन्याय का अगला कदम आपके कपाल पर ही पडेगा।

Monday, July 13, 2020

सचिन पायलट तो तभी से असंतुष्ट थे, जब राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनी थी !



- अमिता नीरव
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद से ही सबकी नजरें राजस्थान पर टिकी हुई थी। यूँ तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार जिस दिन बनी थी, उसी दिन से उसके कभी भी गिर जाने के कयास लगाए जा रहे थे। राजस्थान में हालाँकि मध्यप्रदेश जैसे हालात नहीं थे, फिर भी बीजेपी ने जिस तरह से सारे एथिक्स को ताक पर रखकर राजनीति में आक्रामकता को मूल्य बना दिया है, उससे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सारे ही कांग्रेस शासित राज्य बीजेपी के निशाने पर होंगे।


कांग्रेस ने भी इतिहास में राज्य सरकारें गिराई हैं, लेकिन इतनी निर्लज्जता औऱ इतने खुलेआम विधायकों की खऱीद-फरोख्त का साहस नहीं कर पाई है। बीजेपी ने सारी नैतिकता और सारे मूल्यों पर ताक पर रखकर राजनीति की एक नई परिभाषा, मुहावरे, चाल-चलन औऱ चरित्र को घड़ा है। इसी के चलते अब सारे ही कांग्रेस शासित राज्य खतरे में नजर आते हैं। चाहे विधानसभा के नंबर कुछ भी कह रहे हों। 
जब राजस्थान सरकार बनी थी, सचिन तब से ही असंतुष्ट थे। वहाँ मुख्यमंत्री का नाम तय करने में कांग्रेस को पसीना आ गया था। इससे भी यह आशंका बनी ही हुई है कि वहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। खासतौर पर मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में चले जाने के तगड़े झटके के बाद...। बीजेपी के पास सबकुछ है, पैसा है, ताकत, शातिर दिमाग और सबसे ऊपर सत्ता, जिसके दम पर वह पिछले कुछ सालों में घटियापन की सारी हदें पार करती रही है। 
इन कुछ सालों में देश के एलीट, संभ्रांत औऱ ट्रेंड सेटर तबके ने खासा निराश किया है। बात चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, राजनीति, फिल्म, साहित्य या फिर कला की कोई भी विधा। यकीन नहीं आता कि समाज में जो लोग प्रभावशाली जगहों पर काबिज है, वे इस कदर स्वार्थी, डरपोक और गैर-जिम्मेदार होंगे। देश में प्रतिरोध करने वालों को लगातार दबाया जा रहा है, इससे वो आम लोग जो सरकार से सहमत नहीं हैं, वे भी अपनी बात कहने का हौसला खोने लगे हैं। 1947 से बाद से इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए तो देश में इतने बुरे हालात शायद ही कभी हुए होंगे।

हमें यह मानना ही होगा कि देश नायक विहीन हैं। जिस किसी की तरफ हमने नेतृत्व के लिए देखा, उस-उसने हमें निराश किया है। राजनीतिक विचारधारा सिर्फ अनुयायियों के हिस्से में ही है, जो लोग सक्रिय राजनीति में हैं उनकी नजर अब सिर्फ औऱ सिर्फ सत्ता पर है। इस वक्त में जबकि हम नेता विहीन हैं, हमारी जिम्मेदारी बहुत-बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। कॉलेज में पढ़ा था कि राजनीति सत्ता के लिए संघर्ष है और ‘साम-दाम-दंड-भेद’ या फिर ‘बाय हुक ऑर बाय क्रुक’ जैसे मुहावरे जीवन के हर क्षेत्र की तरह राजनीति में भी कुछ भी करके सत्ता में आने को प्रोत्साहित करते हैं।

तब हमारे लिए क्या बचता है? क्या हम सिर्फ ऐसे वोटर ही बने रहेंगे जिसे सत्ता में बैठे लोग जैसे चाहे, वैसे प्रभावित कर सकते हैं या फिर हम अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करेंगे? मध्यप्रदेश में सरकार बदलने के बाद विधानसभा में उपचुनाव होने हैं, ऐसे में हमें अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना चाहिए। हमें हर हाल में सत्ता की चाहत रखने वालों को आईना दिखाना ही होगा। अब राजनीति में नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना के लिए हमें ही आगे आना होगा। वोटर्स को ही यह बताना होगा कि अब अनैतिक तरीके से बनाई गईं सरकारों को हम स्वीकार नहीं करेंगे। यदि सत्ता चाहिए तो अपने चरित्र को बदलना होगा। हमें भी यदि बेहतर समाज चाहिए तो अपना राजनीतिक व्यवहार बदलना होगा।

हर संकट में कुछ बेहतर होने का बीज छुपा होता है, इस दौर में लगातार गिरते राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें किसी नायक का इंतजार करने की बजाए, खुद ही अपनी और अपने समाज की जिम्मेदारी लेनी होगी। उन सारे राजनेताओं को नकारिए जो सिर्फ सत्ता की चाह औऱ महत्वाकांक्षा में जनादेश का अपमान कर रहे हैं। यदि सत्ता मूल्यों के साथ खिलवाड़ करती है तो उसे भी सबक सिखाना होगा।

Sunday, July 12, 2020

एनकाउंटर का जश्न: लोकतंत्र में न्यायपालिका पर विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है


-मनिंदर सिंह
यह जो एनकाउंटर संस्कृति का जश्न मनाने में मशगूल है उन्हें  इतना पता होना चाहिए कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधियों का एनकाउंटर तभी होता है जब वह या अपने पालनहारों के लिए खतरा बन जाते हैं या फिर उनकी पूंछ पर ही पैर रख देते हैं। यदि आप यहां तर्क दे रहे हैं कि पुलिस ने अपने शहीद साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दुबे को मारा है तो फिर यह भी समझ लीजिए कि दुबे ने उन आठ पुलिस वालों को पुलिस वालों की मुखबिरी की वजह से ही मारा था। यदि इसके पहले अपराध में ही पुलिस वाले और सिस्टम ढंग से काम करते तो तभी इसे टांग दिया जा सकता था इसे इतना बड़ा अपराधी बनाने में भी पुलिस और राजनेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा। 


दुबे जैसे लोग सिर्फ मोहरा होते हैं जिन्हें राजनेता और यह सिस्टम अपने फायदे के लिए खड़ा करता है और जब काम निकल जाता है तो ऐसे ही सफाया भी कर दिया जाता है। वह तो वैसे भी इन्हीं का आदमी था जब तक सिस्टम सही से चल रहा था तब तक सब ठीक था जहां इनकी पूंछ पर पैर रखा वहां बात बिगड़ गई। सिस्टम यूं ही चलता रहता है नया दुबे खड़ा कर दिया जाता है। याद रखिएगा एनकाउंटर आज से शुरू नहीं हुए यह पहले भी होते थे और आगे भी चलते रहेंगे। 

यदि आप इसी तरह एनकाउंटर संस्कृति पर जश्न मनाएंगे और और सरकारों की ओर पुलिस की पीठ थपथपाएंगे तो फिर आने वाले समय में न्यायपालिका से भरोसा और भी उठता जाएगा। और कल को यदि आप से जुड़े किसी निर्दोष का भी एनकाउंटर करके उसे भी जायज ठहरा दिया जाए तो फिर हैरानी मत मानिएगा। उस समय भी उस पर जश्न मनाने वाले लोग मौजूद होंगे। अरे देश का इतिहास सैकड़ों ऐसे फर्जी एनकाउंटर से अटा पड़ा है जहां पर निर्दोष लोगों को दोषी बताकर उनका फर्जी एनकाउंटर किया गया और बाद में जब केस खुले तो फिर काली कहानी निकलकर सामने आई। 

मुझे याद आता है कि हमारे शहर के एक बहुत बड़े उद्योगपति के जवान पुत्र का दिनदहाड़े सालों पहले फर्जी एनकाउंटर कर दिया गया था वह तो उनका रसूख था जो वह इस केस को बड़ी अदालत तक लड़े और अपने बेटे को न्याय दिलवा पाए परंतु सब के पास ना पैसा होता है और ना ही इतनी ताकत। लोकतंत्र में न्यायपालिका का विश्वास कम होना हम सब के लिए खतरे की घंटी है। याद रखिए आप अभी इस पर जश्न मना रहे हैं परंतु एक समय ऐसा भी आ सकता है जब आप पछता रहे होंगे तब शायद आपकी तरफ भी कोई ना खड़ा हो। 

पुलिस की गोली जब बेलगाम हो जाती है ना तो फिर वह जाती दल या कुछ और नहीं देखती। इसलिए कानून का इकबाल बना रहे वह सबसे ज्यादा जरूरी है। न्यायपालिका कितने खतरे में है इसका पता तो इसी बात से चल जाता है कि पुलिस वालों को भी इस बात का भरोसा नहीं रहा कि सिस्टम से उन्हें न्याय मिल पाएगा इस वजह से उन्हें स्वयं अपराधी को उसके अंजाम तक पहुंचाना पड़ा। यह सच में भयावह है। बाकी इस एनकाउंटर में शामिल रहे पुलिस वालों के लिए एक ही सलाह के भैया एनकाउंटर करने से पहले इससे अच्छा होता कि खाकी मूवी के फ्लॉप एक्टर तुषार कपूर की आखिरी सीन वाली एक्टिंग भी देख लेते तो शायद कहानी असली लगती।

डिस्क्लेमर- हम किसी भी तरह के अपराध या अपराधी का समर्थन नहीं करते ना ही समूल तौर पर पुलिस या किसी संस्था का विरोध करते। उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ न्याय व्यवस्था को बाईपास करके एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा देने पर चिंता जाहिर करना है। जिंदगी ना मिलेगी दोबारा।

Saturday, July 11, 2020

दिए जलाओ, नगाड़े बजाओ, विकास को न्याय मिल गया, न्यू इंडिया में आपका स्वागत है!



- मनीष सिंह
इंस्टंट न्याय.... न कोर्ट, न पेशी, न जज, न जल्लाद, ये एनकाउंटर न्याय है बबुआ। भारत अब वो भारत नही जो टीवी पर गोलियां बरसाते हुए पाकिस्तानी को भी भारतीय न्यायिक प्रक्रिया से गुजारता था। अब नुक्कड़ पर खड़ा पुलिसवाला शहंशाह है- जो रिश्ते में तो आपका बाप लगता है। 

बापजी रिपब्लिक में आपका स्वागत है। वर्दी बदल दी जानी चाहिए, खाकी और खादी का अंतर भी। अब इनको चाहिए काली पोशाक, एक हाथ मे रिवाल्वर दूसरे में फांसी की रस्सी। पीछे साउंड ट्रेक चले- "अंधेरी रातों में, सुनसान राहों पर, हर जुल्म मिटाने को..."

यह अंधेरी रात ही है। यह अंधेरा पसन्द किया गया था, चाहा गया था। विकास के गुजरात मॉडल की तरह, न्याय के इस मॉडल को सोहराबुद्दीन मॉडल का नाम मिलना चाहिए। यह मजबूत सरकार है। हमने सोचा था कि मजबूती दिल्ली में रहेगी, हम दूर अपने शहर गांव में आराम से रहेंगे। ऐसा नही होता, सरकार हमेशा आपके दरवाजे से थोड़ी दूर ही होती है। 

उसकी 56 की छाती पर बुलेटप्रूफ जैकेट होती है, आपकी नही। आपकी मजबूती की तमन्ना गलवान में पूरी नही हो पाती, तो क्या हुआ। यह भोपाल हैदराबाद और केरल में तो पूरी हो रही है। आपके मोहल्ले में भी होगी, आराम से बैठिए, जब तक गोली आपके घर मे न घुसे। अभी थोड़ा वक्त है, तब तक दिए जलाए जा सकते हैं, थालियां और नगाड़े बजाए जा सकते हैं। 

आप पूछ सकते हैं कि नया क्या है। क्या 70 साल में एनकाउंटर नही हुए? जी हां, बिल्कुल हुए। नयापन बेशर्मी का है। किस्सों का है, उस कुटिल मुस्कान का है जो बेशर्म झूठ बोलते वक्त मूंछो के नीचे फैल आती है। आगे स्क्रिप्ट वही है, ज्यूडिशियल इंक्वायरी, और फिर कहानी का वेलिडेशन। सब मिले हुए हैं जी। 

मुझे लगता है कि कुछ तो बदलाव होना चाहिए। हर थाने और चौकी में एक नई पोस्ट क्रिएट होनी चाहिए। नही एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नही ..  वो तो हर सशस्त्र पुलिसवाला कभी भी बन सकता है अगर सैय्या कोतवाल हो और सामने कांपता हुआ आरोपी। हर थाने चौकी में एक "एनकाउंटर  स्क्रिप्ट राइटर" की जरूरत है। जो एनकाउंटरों के लिए एक कन्विसिंग कहानी लिख सके। 

असल मे जजो को इस काम मे प्रतिनियुक्त किया जा सकता है। क्योंकि न्यायालयों की जरूरत तो अब है नही। ये कहानियां आपके कोर्ट में आने पर आप स्वीकार कर सकते है, तो बेहतर है थाने में बैठकर लिख भी दिया करें। 

मेरी मांग और सुझाव पर गहराई से सोचिये। आखिर आपके भैया, पापा, बेटे की लाश जब घर में आये, तो साथ आयी उसके एनकाउंटर की कहानी में जरा विश्वसनीयता भी होनी चाहिए.. 

तो बताइये बहनों और उनके भाइयो। 
होनी चईये कि नई होनी चईये ??

यह मत पूछिए कि अदालत कहां है? यह पूछिए, जिस लोकतंत्र में अदालत होती है, वो लोकतंत्र कहां है?

- कृष्णकांत
जब भी किसी गैर-न्यायिक हत्या पर सवाल उठते हैं तो लोग पूछते हैं कि भारत में न्यायपालिका है ही कहां? एक थे जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर. इंदिरा गांधी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट से अपनी संसद सदस्यता गवां बैठीं तो उनके कानून मंत्री एचआर गोखले पहुंचे जस्टिस अय्यर के पास. जस्टिस अय्यर उस समय सुप्रीम कोर्ट में थे और गोखले से उनकी दोस्ती थी. गोखले सोच रहे थे कि जस्टिस अय्यर, इंदिरा गांधी को राहत दे देंगे. लेकिन जस्टिस अय्यर ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया और संदेश भिजवाया कि हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दें.

सुप्रीम कोर्ट में उस वक्त छुट्टी चल रही थी. जस्टिस अय्यर अकेले जज थे. उनके सामने मामला पेश हुआ. इंदिरा की पैरवी के लिए नानी पालकीवाला और राज नारायण की तरफ़ से प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण पेश हुए. वकीलों ने बहस के लिए दो घंटे का समय मांगा. दोनों दिग्गज वकीलों ने 10.30 बहस शुरू की और शाम पांच बजे तक बहस चली. जस्टिस अय्यर ने अगले दिन फैसला देने का वक्त मुकर्रर किया. रात में उनका आवास किले में तब्दील हो गया. रात भर फैसला लिखा गया.

अगले दिन इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता चली गई थी. उन्होंने इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता ख़त्म कर दी पर उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने दिया. इस फैसले से इंदिरा गांधी, कांग्रेस और पूरा देश स्तब्ध था. अगले दिन इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया.


ये वही जस्टिस अय्यर हैं जिन्होंने जस्टिस पीएन भगवती के साथ मिलकर जनहित याचिकाओं की शुरुआत की कि पीड़ित व्यक्ति या समाज के लिए अखबार की कतरन, किसी की चिट्ठी पर भी अदालत स्वत:संज्ञान ले सकती है.

एक बार अधिवक्ता शांति भूषण ने कहा था, ‘जस्टिस अय्यर आज तक सुप्रीम कोर्ट में जितने भी न्यायाधीश हुए, उनमें सबसे महान जज थे.’ इंदिरा गांधी के केस की तरह भारतीय न्यायपालिका की दिलेरी की असंख्य कहानियां हैं. चाहे केंद्र की शक्ति सीमित करने का मामला हो, चाहे न्यायिक सक्रियता का मामला हो, चाहे व्यक्ति के मानव अधिकार बहाल करना हो. सब लिखने की जगह यहां नहीं है.


1951 में ही संविधान संशोधन की वैधता जांचना, गोलकनाथ केस, मिनरवा​ मिल्स मामला, केशवानंद भारती केस, रोमेश थापर केस जैसे तमाम माइलस्टोन हैं, जिनके बारे में जाना जा सकता है. जस्टिस अय्यर के अलावा जस्टिस पीएन भगवती, जस्टिस चंद्रचूड़ और जेएस वर्मा के फैसलों का अध्ययन किया जा सकता है, जिन्होंने न्यायिक सक्रियता को मजबूत किया. निजी अधिकार, समलैंगिकता जैसे मामले हाल के हैं.

भारतीय न्यायपालिका विश्व की कुछ चुनिंदा मजबूत न्यायपालिका में से एक है. जस्टिस लोया जैसे कांड ने इसे बड़ी क्षति पहुंचाई है. आज कोई नेता न्यायपालिका को अपनी जेब में रखना चाहता है, बुरे उदाहरण देकर मॉब लिंचिंग को स्थापित करना चाहता है, तो इसलिए क्योंकि आप उसके हर कृत्य पर ताली बजाते हैं. चार जजों ने आकर कहा था कि सरकार न्यायपालिका पर अनधिकृत दबाव डाल रही है, तब यही जनता उसे वामपंथियों की साजिश बता रही थी. इसके पहले भ्रष्टाचार के आरोप में आकंठ डूबी यूपीए सरकार की दुर्गति अदालत में ही हुई थी.


समस्या ये है कि पूरा देश वॉट्सएप विषविद्यालय में पढ़ाई कर रहा है, जहां सिर्फ बुराइयां बताकर हमसे कहा जाता है कि इस सिस्टम से घृणा करो ताकि इसे खत्म किया जा सके. दुखद ये है कि अपने देश और अपने तंत्र से अनजान आप ऐसा करते भी हैं. आप यह मत पूछिए कि अदालत कहां है? आप यह पूछिए जिस लोकतंत्र में अदालत होती है, वह लोकतंत्र कहां है? 'ठोंक देने' वाला लोकतंत्र दुनिया में कहां मौजूद है?

वो कौन हैं जो चाहते थे विकास दुबे जिंदा न रहे, किसके लिए मुसीबत बन सकता था विकास दुबे?


- रोहित देवेंद्र शांडिल्य
इसमें कोई शक नहीं है कि विकास दुबे की पुलिस कस्टडी में हत्या की गई. शक इसमें भी नहीं है कि वह अपराधी था। शक सिर्फ इस बात में है कि क्या विकास दुबे इस समय यूपी का ऐसा अपराधी था जिसे हर हाल में मार डालना ही अंतिम विकल्प था। उसका जिंदा रहना यूपी की कानून व्यवस्‍था ही नहीं पूरी मानव सभ्यता के‌ अस्तित्व के लिए खतरा था? 

अपराध की दुनिया से सीधा वास्ता ना रखने वाले लोगों के लिए एक सप्ताह पहले विकास दुबे कोई नहीं था। ना उसे लोग नाम से जानते थे ना ही काम से और ना ही तस्वीरों से। एक रात जब पुलिस कर्मियों के मरने की खबर आई तो किसी दूसरे विकास की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। किसी एड्रेस प्रूफ में लगी उसकी धुंधली सी तस्वीर ही मीडिया के पास थी। कानपुर और कानपुर देहात के अलावा विकास को जानने वाले उंगलियों में गिनने भरके थे। आप खुद से पूछिए जिस विकास के एनकाउंटर के लिए आप बेकरार थे उसे आप आठ दिन पहले जानते भी थे क्या?  फिर ऐसा क्या हुआ कि एक अपराधी जिसके ऊपर एक सप्ताह पहले तक पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट नहीं लगाया हुआ था उसे गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस दल वहां अचानक पहुंचा। इसमें भी शक नहीं है कि उसकी मुखबिरी ना होती तो उसी रात उसको मार डालने के इंतजाम थे।

शक इसमें भी नहीं कि उस रात जो कुछ जो भी हुआ वह गलत था। पुलिस कर्मियों की हत्याएं कष्टकारी थीं। लेकिन न्याय की व्यवस्‍था क्या कहती है?  जब एक साथ कई मासूम लोगों को डायनामाइट से उड़ा देने वालों को जेल में रखा जाता है। उनकी सुनवाई होती है फिर उन्हें सजा होती है। तो फिर यह अधिकार विकास दुबे को क्यों नहीं मिलना चाहिए था? विकास दुबे को भारत की न्याय प्रणाली और संविधान में मिले अधिकार एक झटके में इसलिए खत्म किए जा सकते हैं क्योंकि कोई चाहता है कि अब वह जिंदा ना रहे? उसका जिंदा रहना किसी के लिए मुसीबत बढ़ते जाना जैसा बन गया था? 

या विकास को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके आदमियों ने पुलिस वालों की हत्याएं की थीं। तो यदि कोई अपराधी किसी आम आदमी की हत्या करता है तो उसके ऊपर अपराध कोर्ट साबित करती है लेकिन जब अपराध पुलिस के साथ होता है तो यह नियम बदल जाते हैं। पुलिस की भी नियत देखिए। उसकी निगाह में एक जान की कीमत तब महत्वपूर्ण है जब हत्या पुलिस वाले की हो। ‌मरने वाला यदि किसी दूसरे पेशे से हो तब पुलिस के लिए खास चिंता का विषय नहीं है। आप या तो पुलिस में भर्ती हो जाइए यदि ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर आपकी जान बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। 

रिश्वत लेकर बनाए गए ओवरब्रिज के गिरने से एक झटके में दर्जनों लोग मर जाते हैं। जिनके घर के लोग मरते हैं वह बंदूक लेकर किससे बदला लेने निकले? पुलिस सजेस्ट करे कि वह किसको मारें? उनके पास रिवॉल्वर नहीं होतीं या बदला लेने का यह अधिकार पुलिस के पास होता है। पुलिस के जिस कृत्य को आप अपराधी के मार डालने से जस्टीफाई कर रहे हैं जरा उसकी नियम टटोलकर देखिए। 

सरकार से सवाल पूछना या उसके किसी कृत्य पर बात करना फैशन के बाहर है। आईटी सेल तय करता है कि समाज किस दिशा में सोचे। आईटी सेल की सोच के अनुसार ही मीडिया अपनी थीम तय करता है। आईटी सेल इस हत्या को जस्टीफाई कर रहा है तो मीडिया का फर्ज है कि वह भी इसे जस्टीफाई करे। मैं टीवी नहीं देखता लेकिन मीडिया इस घटना पर प्रश्न खड़ा करने के बजाय योगी की सख्त इमेज से जोड़कर उस पर कविताएं लिख रहा होगा। 'ले लिया बदला' या 'चमकता प्रदेश थर्राते अपराधी' जैसे थीम वाले विशेष प्रोग्राम चल रहे होंगे। 

वह समय गया जब मीडिया किसी घटना पर नीर झीर का विवेक करता था। वह गलत और सही को चुनने में आपकी मदद करता था। अब वह दौर नहीं है। यह आपको सोचना है कि पुलिस और सरकारों के मुंह में जब किसी की हत्या करने का खून लग चुका हो तो यह आपके लिए किस हद तक नुकसान देय है। कमजोर न्यायपालिका और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया आपका भला कर सकती हैं या बुरा ये बात आने वाले दो दिन के 'स्मॉल लॉकडाउन' में आप सोच सकते हैं...

विकास दुबे एनकाउंटर: कानपुर पुलिस का बदला तो पूरा हुआ, लेकिन असल चुनौती अभी बाकी है



-विजय शंकर सिंह
कानून के हांथ बहुत लंबे होते हैं। कभी कभी इतने लंबे कि, कब किसकी गर्दन के इर्दगिर्द आ जाएं पता ही नहीं चलता है। एक सड़क दुर्घटना, घायल मुल्जिम द्वारा भागने की कोशिश और फिर उसे पकड़ने की कोशिश, पुलिस पर हमला, पुलिस का आत्मरक्षा में फायर करना और फिर हमलावर का मारा जाना। विकास दुबे को लेकर चल रही सनसनी का यही अंत रहा। 

महाकाल के मंदिर से गिरफ्तार हो कर बर्रा के पास हुयी मुठभेड़ तक यह सनसनी लगातार चलती रही और आज जब मैं सो कर उठा तो बारिश हो रही है, और सोशल मीडिया पर विकास दुबे के मारे जाने की खबरें भी बरस रही हैं। यह खबर हैरान नहीं करती है क्योंकि यह अप्रत्याशित तो नहीं ही थी। प्याले और होंठ के बीच की दूरी कितनी भी कम हो, एक अघटित की संभावना सदैव बनी ही रहती है। 

विकास दुबे खादी, खाकी और अपराधी इन तीनों के अपावन गठबंधन का नतीजा है और कोई पहला या अकेला उदाहरण भी यह नहीं है । शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे विकास दुबे द्वारा 8 पुलिसकर्मियों की दुःखद हत्या के बाद, उससे सहानुभूति शेष रही हो, पर यह एक अपराधी का खात्मा है, सिस्टम में घुसे अपराध के वायरस का अंत नहीं है। विकास दुबे मारा गया है, उसके अपराध कर्मो ने उसे यहां तक पहुंचाया, पर जिस अपराधीकरण के वायरस के दम पर वह, पनपा और पला बढ़ा, वह वायरस अब भी ज़िंदा है, सुरक्षित है और अपना संक्रमण लगातार फैला रहा है। असल चुनौती यही संक्रमण है जो शेष जो हैं, वे तो उसी संक्रमण के नतीजे हैं। 

इस प्रकरण को समाप्त नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि इसे एक उदाहरण समझ कर उस संक्रमण से दूर रहने का उपाय विभाग को करना चाहिए। राजनीति में अपराधीकरण को रोका थामा जाय, यह तो फिलहाल पुलिस के लिये मुश्किल है लेकिन पुलिस तंत्र कैसे अपराधी और आपराधिक मानसिकता की राजनीति से बचा कर रखा जाय, यह तो विभाग के नेतृत्व को ही देखना होगा। 8 पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ के दौरान हुयी शहादत, पुलिस की रणनीतिक विफलता, और पुलिस में बदमाशों की घुसपैठ और हमारे मुखबिर तंत्र जिसे हम, क्रिमिनल इंटेलिजेंस सिस्टम कहते हैं, की विफलता है। क्या अब हम फिर से, कोई फुंसी, कैंसर का थर्ड या फोर्थ स्टेज न बन जांय, को रोक सकने के लिये तैयार हैं ? 

कहा जा रहा है कि सारे राज विकास दुबे के मारे जाने के बाद दफन हो गए । यह बात भी इस साफ सुथरी और सीधी मुठभेड़ की तरह मासूम है कि, कौन से राज पोशीदा थे जो दफन हो गए ? हां एक राज ज़रूर रहस्य ही बना रहा कि उस काली रात को जब डीएसपी देवेन्द्र मिश्र अपने 7 साथियों सहित उस मुठभेड़ में मारे गए तो असल मे हुआ क्या था ? विकास दुबे को पुलिस के रेड की खबर किसने दी थी और फिर खबर नियमित दी जा रही थी या यही ब्रेकिंग न्यूज़ थी कि उसके यहां छापा पड़ने वाला है ? इस राज़ का खुलना इसलिए भी ज़रूरी है कि यह एक हत्यारे का अंत है न कि अपराध का पटाक्षेप। 

रहा सवाल राजनीति में घुसे हुए अपराधीकरण के राज़ के पोशीदा रह जाने का तो वह राज़ अब भी राज़ नहीं है और कल भी राज़ नहीं था। विकास दुबे अगर ज़िंदा भी रहता तो क्या आप समझते हैं कि वह सब बता देता ? वह बिल्कुल नहीं मुंह खोलता और जिन परिस्थितियों में वह पकड़ा गया था उन परिस्थितियों में वह अपने राजनीतिक राजदारों का राज़ तो नहीं ही खोलता। यह तो पुलिस को अन्य सुबूतों, सूचनाओं और उसके सहयोगियों से ही पता करना पड़ता। क्या सरकार केवल विकास दुबे के राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यापारिक सम्पर्को की जांच के लिये भी कोई दल गठित करेगी या इसे ही इतिश्री समझ लिया जाएगा ? 

विकास के सारे आर्थिक और राजनीतिक सहयोगी अभी जिंदा हैं। विकास के फोन नम्बर से उन सबके सम्पर्क मिल सकते है। मुखबिर तंत्र से सारी जानकारियां मिल सकती हैं। उनके अचानक सम्पन्न हो जाने के सुबूत भी मिल सकते हैं। राजनीति में कौन कौन विकास दुबे के प्रश्रय दाता हैं यह भी कोई छुपी बात नहीं है। पर क्या हमारा पोलिटिकल सिस्टम सच मे यह सब राज़ और राजनीति, पुलिस तथा अपराधियों के गठजोड़ के बारे में जानना चाहता है और अपराधीकरण के इस वायरस से निजात पाना चाहता है या वह केवल 8 पुलिसकर्मियों की शहादत का बदला ही लेकर यह पत्रावली बंद कर देना चाहता है ? बदला तो पूरा हुआ पर अभी असल समस्या और चुनौती शेष है। 

यह एक उचित अवसर है कि सीआईडी की एक टीम गठित कर के 8 पुलिसजन की हत्या की रात और उसके पहले जो कुछ भी चौबेपुर थाने से लेकर सीओ बिल्हौर के कार्यालय से होते हुए एसएसपी ऑफिस तक हुआ है, उसकी जांच की जाय। एसटीएफ को जिस काम के लिये यह केस सौंवा गया था वह काम एसटीएफ ने पूरा कर दिया और अब उसकी भूमिका यहीं खत्म हो जाती है। विकास दुबे के अधिकतर नज़दीकी बदमाश मारे जा चुके हैं। जो थोड़े बहुत होंगे वे स्थानीय स्तर से देख लिए जाएंगे। अब ज़रूरी है कि उसके गिरोह का पुलिस, प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रो में जो घुसपैठ है उसका पर्दाफाश किया जाय जिससे यह गठजोड़ जो समाज मे आपराधिक वातावरण का काफी हद तक जिम्मेदार है वह टूटे। 

माफिया का जिस दिन आर्थिक साम्राज्य दरकने लगेगा उसी दिन से अपराधियों का मनोबल भी टूटता है। अपराध से यकायक बढ़ती हुयी संपन्नता, और अफसरों एवं राजपुरुषों की नजदीकियां युवाओं को इस तरह का एडवेंचर करने के लिये बहुत ही ललचाती हैं। गाड़ी पलट मार्का मुठभेड़ों से जनता खुश होती है क्योंकि वह शांति से जीना चाहती है, गुंडों बदमाशों से मुक्ति चाहती है। यह मुक्ति चाहे उसे न्यायिक रास्ते से मिले या न्याय के इतर मार्ग से। यह ऐसे ही है जैसे कोई बीमार एलोपैथी से लेकर नेचुरोपैथी तक की तमाम दवाइयां अपने को स्वस्थ रखने के लिये आजमाता है, कि न जाने कौन सी दवा काम कर जाए ! पर ऐसी मुठभेड़ों पर हर्ष प्रदर्शन, न्यायिक व्यवस्था पर जनता के बढ़ते अविश्वास का ही परिणाम है।

विकास दुबे के साम्राज्य का अंत और प्रकाश झा की फिल्म अपहरण का वो कभी न भूलने वाला दृश्य!



- मनीष सिंह
प्रकाश झा की मूवी आयी थी- “अपहरण”. एक गाँधीवादी फ्रीडम फाइटर का बेटा अपराधी बन जाता है. सबसे बड़ा गैंग्स्टर, मगर अब कानून पीछे है, संरक्षक खिलाफ हो चुके हैं। मौत सर पर है 
        
-"बाबूजी, आप?"
-"हाँ बेटा, तुम्हारी याद आ रही थी"
-बेटा विव्हल हो जाता है "कितना देर कर दिये बाबूजी.. आप पहले कभी...!!"
-"गलती हो गयी न बेटा, उसी की तो सजा भुगत रहे हैं"

बेटा बाप का हाथ पकड़ लेता है-“ मगर हम का करें बाबूजी, कौन सा सजा भुगत लें की सारा किया मिट जाये हमारा... साफ हो जाये जिन्दगी का सलेट बाबूजी..” आंसू पोंछता है-“ एक बार हमको अहसास दिया होता .. तो इतना दूर थोड़ी न आते हम ..” बैठकर जार जार रोने लगता है “हम का करें?? .. हम का करें??? 

ऊत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, कभी राजनैतिक चेतना और नेतृत्व का गढ़ थे। क्रांति और मुखालफत की भूमि के युवा जिस दौर में दाउद और छोटा राजन के गैंग के गुर्गे बन रहे थे, जब श्रीप्रकाश शुक्ला, मुन्ना बजरंगी अपने सुनहरे दौर में थे, उस दौर को दिखाती इस फिल्म का ये सीन रुला देता है.

युवाओ के भटकाव का दौर खत्म नही हुआ है। अपराध और उंसके राजनीतिक सरंक्षण ने एक चारागाह खड़ा कर दिया है जिससे होकर अमीरी और ताकत का शार्टकट गुजरता है। इससे निकल कर कुछ बाहुबली विधानसभा और सन्सद तक जरूर गए है, मगर ज्यादातर का जीवन अपराध की अंधेरी गलियों और जेल की कोठरियों के बीच खत्म हो जाता है। जाति और धर्म में बंटे इस समाज मे क्राइम का रास्ता धर्मनिरपेक्ष है, हर युवा के लिए खुला द्वार है। 

इसलिए अपहरण बंद नही हुआ है, बल्कि हिंदी पट्टी के युवा ने अब देश का अपहरण कर लिया है। संसद में बहुमत का आधा इन अभिशप्त राज्यों से आता है। भटके, गरीब, कुंठित, बेरोजगार, और वर्थलेस होने की हीनता से ग्रस्त लोगो ने धर्म और देश और दबंगई की पताका थाम रखी है। तमाम बेवकूफियो को सडको पर फैलाते हैं, और थोकबन्द वोट करते हैं। सत्ता का संरक्षण इन्हें ताकत का नशीला अहसास दे रहा है।

मूढ़ता से सत्ता और सत्ता से मूढ़ता-  के प्रयोग की लेबोरेट्री का चूहा बन चुके हिंदी पट्टी के अधिकांश युवा, अब चाहे हिन्दू हो या मुस्लमान, हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की जड़े कुतर रहे हैं। ये भयभीत रहने और नफरत करने और दादागिरि के इतने ट्रेंड हो गये हैं, कि हमला करने या प्रतिक्रिया के अग्रिम हमले के लिए सदा उतारू रहते हैं। मध्ययुग के कबायली लड़ाको की तरह नींद में भी हथियार तानकर सोते हैं। घोड़ा कब दब जाए, ठिकाना नही। 

नशा और एड्रीनेलिन फटने पर सिवाय विनाश और पछतावे के, इन्हें कुछ नही मिलेगा। मगर अपहृत हिंदुस्तान भी इनके साथ बर्बाद होगा। हिंदी पट्टी के ये “अभिशप्त युवा” हैं- जैसा रविश कुमार ने कहना शुरू किया है।

रोकने वाला कौन है? समाज, पुलिस, सरकार ..? नही सम्भव नही है। जिन्हें उनके बापों ने नहीं रोका, माताओं ने धर्म और जात का सैनिक बनने को प्रोत्साहित किया, बाहुबली कहलाने का आनंद लिया, तो किसी और की जिम्मेदारी क्यों मानी जाये।
बाबूजी जार जार रोते बेटे के आंसू पोंछते है “कोई बात नहीं बेटा, तू जैसा भी है , मेरा है। और सुन.. पश्चाताप मत कर, हो सके तो प्रायश्चित कर"।  बेटा बात गांठ बांध लेता है. जाकर अपने पोलिटिकल बॉस को मार देता है, पुलिस बेटे को गोली मार देती है. बाप की पहनाई शाल उड़कर गिरती है, कफ़न हो जाती है। 

अंतिम सीन में बाप मुर्दाघर में दस्तखत करता है. बेटे की लाश की रिलीज लेनी है. लाश के माथे पर हाथ फेरता है. वो रोता नही, शक्ल देखकर मै रो पड़ता हूँ.     

फ्रेम में जलती हुई चिता है .. और अकेला बाप
फिल्म खत्म होती है. 

क्या हमारे नेताओं में राजनीति का अपराधीकरण रोकने की इच्छाशक्ति है?


- विजय शंकर सिंह
क्या सभी राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट न देने और उनसे चुनाव में कोई सहायता न लेने पर संकल्पबद्ध हो सकते हैं ? अगर नहीं तो अपराध पर ज़ीरो टॉलरेंस  और भय मुक्त समाज की बात करना बंद कर दें। यूपी विधानसभा में माननीय अपराधियों का जो विवरण एडीआर से मिला है वह इस प्रकार है।
● साल 2017 यूपी विधान सभा चुनाव में कुल 402 विधायकों में से 143 ने अपने ऊपर दर्ज आपराधिक मामलों का विवरण पेश किया था. इन नेताओं ने चुनावी हलफ़नामे में अपने ऊपर दर्ज मुक़दमों की जानकारी दी थी। 
● साल 2017 में भारी बहुमत हासिल कर सत्ता में आई बीजेपी के 37 फ़ीसद विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. 
● बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 83 विधायकों पर संगीन धाराओं में मामले दर्ज हैं जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने चुनावी हलफ़नामे में भी किया है.
● समाजवादी पार्टी के 47 विधायकों में से 14 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
● बीएसपी के 19 में से पांच विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
● कांग्रेस के सात विधायकों में से एक पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 
● तीन निर्दलीय विधायक भी चुनाव जीते हैं और इन सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 

वीर बहादुर सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो सबसे पहली बार संगठित माफिया गिरोहों के खिलाफ कार्यवाही उनकी सरकार ने की थी। उक्त  कार्यवाही में गोरखपुर का चर्चित माफिया और बाद में पार्टी बदल बदल कर माननीय मंत्री बनने वाला हरिशंकर तिवारी और विधायक चुना जाने वाला वीरेंद्र शाही, यह दोनो माफिया सरगना पकड़े गए थे । गोरखपुर क्षेत्र में ब्राह्मण क्षत्रिय जातिगत आधार पर अपराध और माफिया का एक बड़ा संगठित संजाल था, जो लंबे समय तक पूरे पूर्वांचल को संक्रमित किये रहा। 

दोनो ही जातियों के युवा इन दोनों माफिया सरगनाओं के प्रति आकर्षित और मोहित थे, जो अनावश्यक रूप से उनके आपसी विवाद में निरर्थक ही मरते कटते रहे। नॉर्थ इंस्टर्न रेलवे के जोनल मुख्यालय होने के कारण, गोरखपुर रेलवे के बड़े ठेकों में भी यह दोनो सरगना घुसे। दोनो ने ही वक्त ज़रूरत पर एक दूसरे की अंदरूनी मदद भी की। फिर और भी नेता जातिगत और माफिया वर्चस्व के आधार पर तो बंटे ही यह अपराध और जातिगत ध्रुवीकरण का यह संक्रमण अन्य सरकारी विभागों में  भी फैल गया और फिर भला पुलिस कैसे इस राजरोग से बचती ! 

नेता पहले बदमाश को संरक्षण देता है और फिर इसलिए उसे पालता और बढ़ावा देता है कि वह, बदमाश, चुनाव में उस नेता का भौकाल बनाता है। बाद में जब बदमाशों को यह लगने लगा कि जब उनके बाहुबल के आधार पर नेता, सांसद, विधायक और मंत्री तक बन जाता है, तो फिर वे ही क्यों न माननीय बन जांय। बस यहीं से राजनीति का अपराधीकरण या अपराध का राजनीतिकरण शुरू हो गया। 
वीर बहादुर सिंह के समय यह दोनो माफिया सरगना, पहली बार एनएसए, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल भेजे गए थे। तभी माफिया गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिये 1986 में यूपी गैंगस्टर निवारण अधिनियम लाया गया था। यह अधिनियम पुलिस को व्यापक अधिकार देता है और इस अधिनियम में जमानत आदि के प्राविधान सामान्य अपराधों से अधिक कड़े हैं। अतः इसका असर भी अपराधियों पर पड़ा और माफियाओं की गतिविधियों पर लगाम भी लगी। 

लेकिन माफियाओं ने अपना स्वरूप बदला और वे विभिन्न सरकारी ठेकों में घुस गए। अब वे कारोबार में घुसे। रेलवे के ठेकों के अतिरिक्त, खनन और अन्य सरकारी ठेकों में भी उन्होंने अपना संजाल फैलाया। सरकार ने ठेके देने के लिये ठेकेदारों के चरित्र प्रमाणपत्र और पुलिस वेरिफिकेशन के नियम बनाये तो, इन माफियाओं ने अपने सहयोगियों, जिसके क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं थे, के नाम पर ठेके लेने लगे। 

अब इससे जो, धन आया, उससे माफिया का एक नया स्वरूप विकसित हुआ, जिंसमे ठेके तो माफिया दिलाता है और उसका कुछ पैसा लेता है, पर काम अन्य लोग करते हैं। यह एक नए प्रकार की रंगदारी और सामंतवाद का जन्म था जिंसमे इलाके की बड़ी बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी भी अपना काम सुचारू रूप से चलाने के लिये खलवंदना करने लगीं। बिना श्रम से अर्जित पूंजी जब आती है तो वह अपराध की ओर स्वाभाविक रूप से ले जाती है। 


इस प्रकार राजनीति, ठेका, और माफिया का जो गठजोड़ बना वह तमाम कानून लागू करने वाली एजेंसियों पर भारी पड़ा। गैगस्टर एक्ट में अचानक धनी और सम्पन्न हो जाने वाले लोगों पर भी नज़र रखने का एक प्राविधान था। उनके संपत्ति के स्रोत की जांच और अगर वह सम्पत्ति उस गिरोह के अपराधकर्म से संचित है तो, उसकी जब्ती के भी प्रविधान हैं। पर इन सब पर कार्यवाही उतनी नहीं हुयी जितने मनोयोग से होनी चाहिए। आज विकास दुबे के सहयोगी जय बाजपेयी की संपत्तियों की खबर मिल रही है और यह भी खबर है कि इनकम टैक्स विभाग ने भी इसकी जांच शुरू कर दी है। 

यह भी तो पूछा जा सकता है कि, जय बाजपेयी की, लगातार बढ़ती संपत्तियों के बीच, इनकम टैक्स विभाग का इन्वेस्टिगेशन विंग क्या कर रहा था ? जय बाजपेयी 300 रुपये रोज़ पर एक प्रिंटिंग प्रेस में कुछ ही सालों पहले काम करता था और आज उसकी संपत्तियां कानपुर से लेकर दुबई, सिंगापुर तक फैली हैं। क्या यह आर्थिक साम्राज्य विस्तार असामान्य नही लगता है ? 

पुलिस, राजस्व और आयकर इन तीनो कानून लागू करने वाली एजेंसियों को साथ ही मिल कर इन माफियाओं के काले साम्राज्य पर हमला करना और शिकंजा कसना पड़ेगा तभी माफियाओं  का संजाल टूटेगा। माफिया एक समानांतर सरकार की तरह होता है। पुलिस से लेकर सरकार तक उनकी पैठ होती है और ज़रूरत पड़ने पर एक दूसरे के विपरीत रहने वाले माफिया अपने आर्थिक हितों के लिये एक दूसरे के साथ समझौता भी कर लेते हैं। 


अपराध नियंत्रण हेतु, देश की विधि व्यवस्था में कानूनी प्रविधानो की कमी नहीं है। गैंगस्टर एक्ट 1986 के बाद और भी सख्त कानून बने हैं पर उन सब कानूनो के तात्कालिक असर के बाद, इन माफिया गिरोहों पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है, राजनीति में उनकी पैठ, धमक और हनक। सरकार एसओ चौबेपुर विनय तिवारी को इस कांड से जोड़ कर उसे जेल भेज दे या बर्खास्त कर दे, पर सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि विनय तिवारी इस पूरे अपराधीकरण के खेल में एक भुनगा है और उसकी बर्खास्तगी से माफियागिरी पर कोई बहुत असर नहीं पड़ेगा। सड़ चुका यह तंत्र, फिर से कोई न कोई नया विनय तिवारी पैदा कर लेगा। उसके पास अनेक विनय तिवारी बनाने का हुनर, सामर्थ्य और राजनीतिक तथा प्रशासनिक कनेक्शन है।

मार्च, 1993 में मुंबई धमाकों के बाद भारत सरकार ने, केंद्रीय गृह सचिव रहे एनएन वोहरा की अध्यक्षता में राजनीति के अपराधीकरण की छानबीन के लिये एक कमेंटी गठित की थी।  इसे क्राइम सिंडिकेट, माफिया संगठनों की गतिविधियों के बारे में हर संभव जानकारी जुटाने और उसका विश्लेषण करने का काम दिया गया था जिन्हें सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संरक्षण मिलता हो। एनएन वोहरा एक आईएएस अफसर थे। उन्होंने छः महीने में  ही अपनी जांच रिपोर्ट पांच अक्टूबर, 1993 को सरकार को सौंप दी थी। लेकिन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट, आज 27 साल बाद भी न जाने कहाँ गुम हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के नेक्सस की विस्फोटक जानकारियां हैं। इसीलिए कोई भी राजनीतिक दल इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। अपराधियों से किस किस नेता अफसर व्यापारियों के रिश्ते हैं क्या यह जानने का अधिकार जनता को नहीं है ?


रिपोर्ट सौंपने के दो साल बाद तक इसे संसद में नहीं रखा गया, जबकि इसे संसद के पटल पर रखने की मांग जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा करती रही और जब भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस करती रहती है पर 1995 से अब तक दोनो ही दल लंबे समय तक सरकार में रह चुके हैं और भाजपा तो अब भी सत्ता में है पर यह रिपोर्ट न तो सार्वजनिक की गयी और न ही सार्वजनिक की जा रही है । 1995 में एक सनसनीखेज  हत्याकांड हुआ, नैना साहनी का । वह भी राजनीति के अपराधीकरण का मामला था। तब तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने, अगस्त, 1995 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट के कुछ पन्ने सार्वजनिक किए। यह रिपोर्ट 100 से ज्यादा पन्नों की है लेकिन सरकार ने सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए। कोई नाम सार्वजनिक नहीं किया गया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नेक्सस में कुछ एनजीओ और बड़े पत्रकार भी शामिल थे।

जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब राज्यसभा के सांसद दिनेश त्रिवेदी ने वोहरा कमिटी रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की। दिनेश त्रिवेदी ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की पर सरकार ने अदालत से कह दिया कि वह कोई भी रिपोर्ट पटल पर रखे या न रखे जाने का निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र है, और उसने सदन के पटल पर यह रिपोर्ट न रखने का निर्णय लिया है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की यह बात भी मान ली। लेकिन अभी भी इस रिपोर्ट में क्या है यह रहस्य खुलने का इंतज़ार देश को है। 

इस बीच बीते चार आम चुनाव से राजनीति में आपराधिकरण तेजी से बढ़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में इसका जिक्र किया है। 2004 में 24% सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी, लेकिन 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 पर्सेंट और 2014 में 34 पर्सेंट हो गई। चुनाव आयोग के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 43 पर्सेंट सांसदों के खिलाफ गंभार अपराध के मामले लंबित हैं।

फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद, एक महत्वपूर्ण आदेश दिया कि, राजनीतिक दलों को आपराधिक रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के बारे में खुद जनता को जानकारी देनी होगी। अदालत ने यह भी कहा है कि अगर इस पर अमल नहीं हुआ तो अवमानना की कार्रवाई होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि नेताओं, अपराधियों, अफसरों और पुलिस के बीच गठजोड़ को जड़ से खत्म करने की कोशिश क्यों नहीं होती? 

आखिर सरकार इस मामले पर आगे बढ़ कर सभी दलों से बात करके इस अपराधीकरण के संक्रमण को रोकने के लिये कोई सार्थक पहल क्यों नहीं करती ? पहल तो दूर की बात है, इस रिपोर्ट को नरेंद्र मोदी सरकार ने भी सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटाई । जबकि इन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि, एक साल के अंदर सभी दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बना कर उनके मुकदमों का निस्तारण किया जाएगा।  26 सितंबर, 2018 को चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को 'लोकतंत्र के महल में दीमक' करार दिया था।

तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्र ने एक मुक़दमे के फैसले में,1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद गठित एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट का भी उल्लेख किया और यह टिप्पणी की कि, 
" भारतीय पॉलिटिकल सिस्टम में राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजान विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा जो क्रिमिनल गैंग्स, पुलिस, कस्टम अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं के नेटवर्क का परिणाम था।"


चीफ जस्टिस मिश्रा ने बताया कि कैसे इसमें सीबीआई, आईबी, रॉ के अधिकारियों ने इनपुट दिया कि आपराधिक नेटवर्क समानांतर सत्ता चला रहे हैं। वोहरा कमिटी की रिपोर्ट में कुछ ऐसे अपराधियों का जिक्र भी है जो स्थानीय निकायों, विधानसभाओं और संसद के सदस्य बन गए। पांच जजों की बेंच ने कई ऐसे पीआईएल की सुनवाई की, जिनमें दोषी ठहराए जाने से पहले ही आरोपों के आधार पर नेताओं की सदस्यता खत्म करने की अपील की गई थी। हालांकि बेंच ने इस पर कार्रवाई का अंतिम फैसला संसद पर छोड़ दिया।

सरकार को एक और अधिकार है कि वह कोई भी आपराधिक मामला वापस ले सकती है। यह किसी भी वादी का एक वैधानिक अधिकार है। आपराधिक मामलों में वादी सरकार होती है तो सरकार चाहे तो वह कोई भी मुकदमा वापस ले सकती है। किसका मुकदमा वापस होना है, कौन सा मुकदमा वापस होना है और कब वापस होना है यह निर्णय सरकार का होता है और सरकार का यह निर्णय शुद्ध रूप से राजनीतिक निर्णय होता है। जिले से जिसका मुकदमा वापस होना है उसके बारे में डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट और एसपी से रिपोर्ट मांगी जाती है और रिपोर्ट में मुक़दमे वापसी के विरोध में लिखा जाता है, फ़िर भी सरकार मुकदमा वापस ले लेती है। क्या कभी यह सोचा गया है कि इस प्रकार के मुक़दमे वापसी का क्या असर पुलिस पर पड़ता है ? पुलिस ने झूठा मुकदमा लिख लिया, रंजिश से मुकदमा लिखा दिया गया, पोलिटिकल दुश्मनी है आदि आदि अनेक तर्क दिए जाते हैं पर कोई यह नहीं कहता कि फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित कर के इसकी सुनवाई कर ली जाय और तब राजनीति कीजिए। 


आज जो भी बहस माफिया और गुंडों के बारे में आप देख सुन पढ़ रहे हैं उन सबका स्रोत राजनीति से जुड़ा है। राजनीति के अपराधीकरण और जातीय तथा धार्मिक भेदभाव ने पुलिस को गहरे तक संक्रमित कर रखा है। दिक्कत है कि इसका इलाज करने में जो सक्षम है, यानी सरकार, वह खुद भी इससे अधिक संक्रमित है। अब उसका इलाज कौन करे, असल सवाल यही है। सभी राजनीतिक दलों को, कम से कम एक बात पर एकमत होना पड़ेगा कि वे किसी भी आपराधिक व्यक्ति का न तो पक्ष लें और न ही उन्हें अपने दलों में शामिल करें। आज हालत यह हो गई है कि बुरी मुद्रा ने अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया है। विकास दुबे पकड़ा जा सकता है और यह भी हो सकता है कि पकड़ते समय कोई मुठभेड़ हो जाय तो उसमें वह मार भी दिया जाय । उसका आर्थिक साम्राज्य तहस नहस भी हो सकता है। पर इस बात की क्या गारंटी है कि कल कोई दूसरा विकास दुबे नहीं पैदा होगा। असुर रक्तबीज की तरह होते हैं। क्या आज हमारे रहनुमाओं में, राजनैतिक इतनी इच्छा शक्ति है कि, राजनीति और अपराध का घाल मेल वे रोक सके ?

विकास दुबे एनकाउंटर: किसको डर और किससे डर? अब तक कितने शहीद पुलिसवालों को इंसाफ मिला?


- धीरेश सैनी
विकास दुबे को लेकर कुछ स्टेटमेंट्स पढ़े। राज़ खुल जाने का डर और पुलिस ने बदला लिया, इन बिंदुओं पर काफ़ी कुछ लिखा दिखाई दिया। 'राज़ खुलने का डर'' इस बारे में कुछ दोस्तों ने ठीक ही लिखा कि किसको डर और किस से डर। जब मीडिया और डेमोक्रेसी की संस्थाएं नियंत्रित हों तो कैसा डर? गुजरात के नरसंहार से लेकर अब तक जाने कितने स्ट्रिंग ऑपरेशन हो चुके हैं जिनमें हत्याओं और सामूहिक बलात्कार में शामिल रहे अपराधी अपनी करतूतों का बयान करते हैं, कितनी बार हत्यारे ख़ासकर लिंचिंग में शामिल रहने वाले ख़ुद ही वीडियो बनाकर वायरल करते रहे हैं।

फोर्स में अपने आठ लोगों की मौत का बदला लेने के लिए गुस्से की बात भी ऐसी ही है। किसी भी मामले में सत्ता अनुकूल गुस्सा हो तो अलग बात है वरना उत्तर प्रदेश में वर्तमान भाजपा सरकार बनते ही पुलिस थानों और उसके अफ़सरों पर हमले की ताबड़तोड़ घटनाएं हुई थीं। युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं और भगवा गमछे वालों पर ही इन हमलों का आरोप था।वीडियो भी वायरल हुए थे। एकाध प्रशासनिक अधिकारी भी चपेट में आए। इस गुस्से-वुस्से के सरेंडर होने को लेकर उन दिनों काफ़ी-कुछ लिखा भी गया था।
सहारनपुर के एसएसपी लव कुमार की सरकारी कोठी पर ही हमला कर दिया गया था। यह अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी। एसपी को पुलिस की भाषा में कप्तान कहा जाता है। कप्तान की पत्नी और बच्चे जान बचाने के लिए पशुओं के साथ छिपे बैठे रहे थे। सर्च कीजिएगा तो लव कुमार की पत्नी की आपबीती पढ़ने को मिल जाएगी। वे बताती हैं कि भीड़ भाजपा एमपी के साथ आई थी। गुस्सा किस बात को लेकर था? एसपी साम्प्रदायिक हिंसा की आशंका को टालने के लिए जुलूस को अचानक नये रुट से एक ख़ास गाँव जाने से रोक रहे थे।

इंसपेक्टर सुबोध सिंह। राजपूत  ही थे। उनकी हत्या एक बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा की साजिश को नाकाम कर देने की वजह से ही तो की गई थी। नृशंसतापूर्वक। हिन्दुत्ववादी संगठनों के लोग ही तो आरोपी थे। सुबोध सिंह के ख़िलाफ़ ही जमकर ज़हर वायरल किया जाता रहा। आरोपी जमानत पर बाहर आए तो जयश्रीराम और वंदे मातरम के नारों के बीच फूलमालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया गया।

Thursday, July 9, 2020

व्यंग्य: एक बार की बात है, जब मोदी जी गांव का दौरा करने पहुंचे और सामने आ गई बड़ी मजबूरी !


- अशफाक अहमद
एक बार की बात है, एक सुदूर गांव के पंचायत चुनाव में प्रचार के लिये जाना हुआ। गांव ऐसी जगह था कि न वहां अभी तक देश भर में हवाई अड्डों का जाल बिछाने वाली सरकार कोई हवाई अड्डा ही बना पाई थी और न निजीकरण के बाद दिन दूनी रात चौगुनी करने वाला रेलवे कोई स्टेशन ही खोल पाया था तो साहब बहादुर का काफिला गाड़ियों पर सवार अमेरिका से बढ़िया डामर युक्त सड़कों पर धूल उड़ाते गांव पहुंचा और नौकरियां जाने के बाद घर वापसी की हुई भारी भीड़ देख मोदी जी ने सालों पहले जा चुकी कांग्रेसी सरकार के धुर्रे उड़ा दिये।

जनता ने भी जम के तालियां पीटीं, आखिर सभा के बाद सरपंच की तरफ से सबको खाने का आश्वासन भी उन्हें ऊर्जा से भर रहा था। सबने खाया पिया.. मोदी जी भी दिल्ली से साथ लाये काजू के आटे वाली रोटी और ताईवानी मशरूम की सब्जी खाये। वह कहीं भी जाये, न अपनी गरीबी भूलते हैं न गरीबी का भोजन.. महान नेताओं में ऐसे ही गुण होते हैं। 

बहरहाल, अब माहौल का असर था कि डामरयुक्त सड़कों के रेशमी धक्के कि पेट ने भी सातों सुरों में रियाज करने की ठान ली और लगा सहगल के अंदाज में सुर खींचने.. उसके ऊपर गुड़गुड़ की करतल ध्वनि करते काजू और मशरूम के मिक्सचर ने भी बराबर की तान दी। मोदी जी परेशान कि अगर जल्द ही इन्हें आजादी की राह न दिखाई तो आज पजामी में ही लड्डन खां का पीला रायता अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करायेगा।

गाड़ी रुकी तो काफिला भी थम गया। भले सरकार ने हर ग्रामीण को दो-दो शौचालय दिये हों लेकिन यहाँ तो एक भी न था। अब मजबूरी थी, एक झाड़ के पीछे बआवाजे बुलंद रियाज करते मिक्सचर को बाहर का रास्ता दिखाये, बिसलेरी से पोंछा मारा और चल दिये। बात छोटी सी थी और वहीं खत्म हो जाती.. अगर वहीं थोड़ी दूर मौजूद दो लड़के यह सब देख न लेते, और अपने मोबाइल से चुपके से वीडियो न बना लेते और फेसबुक पर अपलोड न कर देते।

अब आगे जो हुआ वह काजू और मशरूम के मिक्सचर के रियाज से भी जबर था। लड़कों ने तो बस तफरीहन वीडियो डाली कि मोदी जी भी आम इंसानों की तरह हल्के होते हैं। नहीं मतलब.. लोग सोचते हैं कि वे तो दिव्य पुरुष हैं, जैसे दूध भरी भैंसों को मिल्किंग मशीन से दुहा जाता है, कुछ उसी तरह का सक्शन पाईप इस्तेमाल होता होगा, लेकिन ऐसा नहीं था।

पर सोशल मीडिया ही क्या जहाँ बवाल न मचे। वीडियो हाथों हाथ लिया गया। मोदी विरोधी तबका दांद काटने लगा तत्काल कि भक्तों.. कहाँ गये वह तुम्हारे घर-घर शौचालय.. देख लो कैसे प्रधान जी खुद खुले में हग रहे हैं। कांग्रेस ने अगले ही दिन प्रेस कांफ्रेंस की और सुरजेवाला ने अपना सूरज यह कहते हुए प्रज्वलित किया कि यह मोदी सरकार की असफलता की स्पष्ट निशानी है कि गांवों में लाखों शौचालय बनवाने का दावा करने वाले खुद खुले में हग रहे हैं। खुले में शौच पर बाकायदा सरकार ने जुर्माना लगाया था और मास्टरों की ड्यूटी लगाई थी कि उनकी फोटो खींच कर सोशल मीडिया पर डाली जाये और उन्हें शर्मिंदा किया जाये। तस्वीर/वीडियो डाला जा चुका है.. ठीक है कि मोदी सरकार में लोग शर्मिंदा नहीं होते लेकिन क्या मोदी जी जुर्माना भी भरेंगे?

भाजपाइयों ने पलटवार किया कि नेचर काॅल है, इसपे किसी को क्या कंट्रोल। आदमी दो पैरों पर कूदता फांदता कहीं भी जा सकता है, शौचालय थोड़े हर जगह चला जायेगा। अब लग गयी तो लग गयी। क्या सत्तर साल पहले सब खुले में नहीं हग रहे थे जो आज सबके पेट में दर्द हो गयी। हगना आदमी का संवैधानिक अधिकार है, हर भारतीय कहीं भी हग सकता है.. रैली के मंच पर, ट्विटर/फेसबुक/व्हाट्सएप पर, टीवी पर, अर्थव्यवस्था पर, न्यायपालिका पर, कार्यपालिका पर, लोकतंत्र के चौथे खम्बे पर भी.. लेकिन फिलहाल वहां हम मूत कर काम चला रहे हैं।

वामपंथी बड़े सयाने.. लग गये खेत के मालिक का पता निकालने। पता चला खेत तो एक मुल्ले गयासुद्दीन का था.. उन्होंने तत्काल डिक्लेयर कर दिया कि यह मोदी जी के मन में दबी नफरत है मुस्लिमों के प्रति कि उन्होंने जानबूझकर एक मुसलमान के खेत में हगा। वे जताना चाहते हैं कि मुसलमानों तुम इसी लायक हो कि तुम्हारे खेत में हगा जाये। यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और आर्टिकल इतने बटे उतने का स्पष्ट उल्लंघन है। मोदी जी को इसके लिये मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिये। कन्हैया के आजादी सांग में एक लाईन और बढ़ गयी.. हमें चाहिये.. शौच से आजादी।

अब भाजपा के आईटी सेल ने मुद्दा लपक लिया। वे लगे प्रचार करने कि हर राष्ट्रवादी का नैतिक कर्तव्य है कि वह न सिर्फ मुल्लों के खेत में हगे, उनके घरों में हगे, बल्कि पाये तो उन पर ही हग दे। उन्होंने प्रोफेसर ओक का लिखा कोई गुप्त दस्तावेज भी ढूंढ निकाला है कि यह ऐतिहासिक फैक्ट है कि औरंगजेब सिर्फ रात को हगता था और इसके लिये किसी हिंदू भाई का खेत ही तलाशता था, चाहे इसके लिये उसे चेतक के कनवर्टेड प्रपौत्र मौलाना पेचक पर बैठ कर सौ किलोमीटर दूर क्यों न जाना पड़े।

मुसलमान बिलख पड़े कि देश के प्रधान का उनके साथ यह कैसा सौतेला व्यवहार है, क्या वे इस देश के नागरिक नहीं हैं? उन्होंने राहत साहब से शेर भी मोडिफाई करवाया है.. सभी की पोट्टी शामिल है यहाँ की मिट्टी में.. किसी के बाप का खेत थोड़े है। सेकुलर गैंग कंधे से कंधा मिला कर उनके साथ खड़ी हो गयी कि वे अपने मुसलमान भाइयों को अकेला नहीं फील होने देंगे और सब मिल कर उनके खेतों की रक्षा करेंगे। इस एकता को देख यूपी वाले महंत ने फरमान जारी कर दिया कि जो भी मुसलमान किसी राष्ट्रवादी को हगने के लिये अपना खेत नहीं देगा, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जायेगी और उसकी संपत्ति कुर्क कर ली जायेगी।

उधर ट्विटर पर भाजपा आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने एक वीडियो अपलोड करके बताया कि उस खेत में जो झाड़ थे, वे पांच-पांच सौ रुपये दे कर खड़े किये थे ताकि मोदी जी उन्हें निर्जीव झाड़ समझें और वे गवाह बन सकें। इस पर एक झाड़ ने रीट्वीट करते हुए बताया कि वायरल वीडियो में दिख रहा झाड़ वो ही है और यह पैसे उन्हें खुद प्रधानमंत्री के काफिले वालों ने दिये थे ताकि वे आड़ उपलब्ध करा सकें और यहाँ भी उनके साथ चीटिंग हुई है, क्योंकि पांच सौ का वादा कर के पांच रुपये ही दिये।

राष्ट्रवादी चैनलों पर चीखती हेडलाइन्स चलने लगीं.. मोदी के खिलाफ साजिश.. कौन है मोदी जी की तशरीफ देखने का लालची.. गयासुद्दीन और आईएसआई का कनेक्शन.. मोदी जी को बदनाम करने की पाकिस्तान की साजिश.. गयासुद्दीन के पाकिस्तान कनेक्शन पर घंटों डिबेट हुई, एंकर्स ने गयासुद्दीन के नजदीकियों के बयान भी दिखाये कि कैसे गयासुद्दीन ने पिछले तीन सालों में पूरे पांच बार पाकिस्तान का नाम लिया है। नाम ले कर आगे कहा क्या.. इसका पता अभी नहीं चल पाया है।

प्राइम टाइम पर रवीश कुमार ने भी प्रोग्राम किया और देश को बताया कि यह ठीक है कि प्रेशर किसी को भी और कहीं भी बन सकता है, इस पर प्रधानमंत्री पर सवाल उठाना गलत है लेकिन क्या एसपीजी को यह नहीं पता था कि खेत एक गरीब मुस्लिम का था और प्रतीकात्मक रूप से देश भर में एक मैसेज जायेगा देश भर में कि मुसलमानों को ले कर प्रधानमंत्री का नजरिया क्या है.. तो उन्हें थोड़ी एहतियात करना चाहिये था। आखिर आसपास हिंदुओं के भी खेत मौजूद थे।

यह बात जब गांव कस्बे में रहने वाले, आम सरकार विरोधी तक पहुंची तो उसने मुंह चलाते हुए पान की पीक उगली और आस्तीन चढ़ाते हुए बोला कि यह मोदी देश का भाईचारा खा के ही रहेगा। हमको मिल के इसका विरोध करना पड़ेगा। किसी ने पूछा कि किया क्या अब मोदी ने तो जवाब दिया कि वह तो हमको पता नहीं पर मोदी ने किया है तो कुछ गलत ही किया होगा.. और आम मोदी समर्थक तक पहुंची तो उसने मुंह में भरा गुटखा 'पिच' करके थूका और हाथ खड़े करते हुए नारा लगाया, भारत माता की जय.. मोदी जी तुम इनके लकड़ी करो, हम तुम्हारे साथ हैं। किसी ने पूछा कि आखिर किया क्या है तो भक्त ने गर्व से छाती फुलाते हुए कहा, वो तो पता नहीं पर मोदी जी ने किया है तो कुछ अच्छा ही किया होगा।

इन सब बातों से बेखबर मोदी जी ने ड्राइवर को अपनी विपदा सुनाई कि भई पृथ्वी पर जो था वह सब देख लिये.. कोई नया देश नहीं पैदा हुआ क्या। ड्राइवर ने कैलासा के अवतरण की शुभ सूचना दी तो मोदी जी ने स्टीयरिंग उधर ही घुमा लेने को कहा।

Tuesday, July 7, 2020

मनरेगा के जरिये ग्राम प्रधान ऐसे करते हैं भ्रष्टाचार और जॉब कार्डधारक मजदूरों का शोषण



- तेजभान तेज
गांव में मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्डधारक मजदूरों को तब पता चलता है, जब उनके खाते में पैसे आ जाते हैं। गांव का प्रधान उन्हें एक दिन पहले बताता है कि तुम्हारे खाते में पैसे डाले गए हैं, कल उसे उतारने के लिए बैंक चलना है। मजदूर अपने खाते से पैसे उतार कर प्रधान को देते हैं और बदले में प्रधान उसे एक हजार रूपए पर सौ रुपए के हिसाब से जोड़कर देता है। जैसे पांच हजार पर पांच सौ रुपए। यदि प्रधान बहुत ईमानदार हुआ तो ! वरना उसे 10-20 देकर ही टरका देता है। 

कई बार तो 10-10 हजार रुपए उतारने पर भी मजदूरों को 100 रुपए में ही निपटा दिया जाता है। और अधिक पैसे मांगने पर प्रधान कहता है कि काम तो किया नहीं, फिर पैसे किसलिए ! जबकि सच्चाई यह है कि प्रधान खुद ही काम नहीं देता है। काम मांगने पर कहता है कि काम नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि जब काम नहीं है तो मजदूरों के खाते में पैसे आए कहां से ? अब तो बैंक की लघु शाखा वाले खुद ही अंगूठा लगाने वाली मशीन लेकर गांवों में आ जाते हैं इसलिए बैंक जाने से भी छुटकारा मिल गया है। यदि प्रधान का वश चलता तो मजदूरों का अंगूठा काटकर अपने पास ही रख लेते।

गांव के ही मजदूर अंकित ने बताया कि उसके खाते में अभी 5000 रुपए आए हैं। इतने ही पैसे उसकी मां और पिताजी के खाते में भी आए हैं। यानी कुल मिलाकर 15000 रुपए। इन लोगों को उसमें से 1500 रुपए मिलेंगे। बाकी के पैसे प्रधान ले लेंगे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अंकित और उसके माता-पिता को भी नहीं पता कि ये जो पैसे उनके खाते में आए हैं, उसके बदले में उन्होंने काम कब और कहां किया था। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, लगभग हर महीने उनके खाते में कुछ ना कुछ पैसे आते रहते हैं, जिसके काम के बारे में उन्हें कुछ नहीं पता होता है। लेकिन सरकारी आंकड़ों में इनके नाम दर्ज हो रहे हैं। ऐसे ही सैकड़ों लोग गांव में हैं, जो प्रधान के इस नेक काम में हाथ बंटाते हैं। जब भी कोई कुछ जानने-समझने की जुर्रत करता है, तो अगले महीने से उसके खाते में पैसे आने बंद हो जाते हैं।

नरेगा की वेबसाइट पर ऑनलाइन देखें तो गांव की तस्वीर अलग ही दिखती है। यहां बहुत सारे काम दिखते हैं। लगता है कि हमारा गांव विकसित गांव की श्रेणी में आ गया है। लेकिन ज़मीन पर पोखरी-पोखरा, नाली, खडंजा, चकरोड सब कुछ नदारद है। जो थोड़े-बहुत काम कराए जाते हैं, उन्हें भी ज़्यादातर जेसीबी से करा लिए जाते हैं और मजदूरों के खाते से पैसे निकालकर अपनी जेबें भर ली जाती हैं। कोरोना वायरस के खतरे से निपटने के लिए गांव को सेनेटाइज करने, लोगों को मास्क और साबुन बांटने के लिए जो पैसे आए थे, वो भी सब गायब हो गए। गांव वालों ने बताया कि सिर्फ एक दिन कुछ लोगों को साबुन भर बांटे गए थे। वो भी पूरे गांव में नहीं। बस कुछ ही लोगों को। बाकी बचे पैसों से प्रधान अपने लिए जमीन और गाड़ी खरीदते हैं। यह किसी एक गांव की घटना नहीं है। ज़्यादातर गांवों में इसी तरह से काम कराया जा रहा है।

गांव का प्रधान उन्हीं जॉब कार्ड धारकों के खाते में पैसे डालता है, जो उसका बहुत खास होता है या बहुत कमजोर तबके का होता है। जो लोग उससे सवाल-जवाब कर सकते हैं उनको ना तो काम दिया जाता है, ना ही उनका जॉब कार्ड बनाया जाता है। प्रधान के काम में किसी तरह की कोई पारदर्शिता नहीं होती है। पूछने पर कुछ बताया भी नहीं जाता है। सरकार हर साल जैसे-जैसे नरेगा के लिए बजट बढ़ा रही है, वैसे-वैसे इनके लूट-खसोट का दायरा भी बढ़ता जा रहा है।