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क्या हमारे नेताओं में राजनीति का अपराधीकरण रोकने की इच्छाशक्ति है?


- विजय शंकर सिंह
क्या सभी राजनीतिक दल अपराधियों को टिकट न देने और उनसे चुनाव में कोई सहायता न लेने पर संकल्पबद्ध हो सकते हैं ? अगर नहीं तो अपराध पर ज़ीरो टॉलरेंस  और भय मुक्त समाज की बात करना बंद कर दें। यूपी विधानसभा में माननीय अपराधियों का जो विवरण एडीआर से मिला है वह इस प्रकार है।
● साल 2017 यूपी विधान सभा चुनाव में कुल 402 विधायकों में से 143 ने अपने ऊपर दर्ज आपराधिक मामलों का विवरण पेश किया था. इन नेताओं ने चुनावी हलफ़नामे में अपने ऊपर दर्ज मुक़दमों की जानकारी दी थी। 
● साल 2017 में भारी बहुमत हासिल कर सत्ता में आई बीजेपी के 37 फ़ीसद विधायकों पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. 
● बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 83 विधायकों पर संगीन धाराओं में मामले दर्ज हैं जिसका ज़िक्र उन्होंने अपने चुनावी हलफ़नामे में भी किया है.
● समाजवादी पार्टी के 47 विधायकों में से 14 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
● बीएसपी के 19 में से पांच विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
● कांग्रेस के सात विधायकों में से एक पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 
● तीन निर्दलीय विधायक भी चुनाव जीते हैं और इन सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 

वीर बहादुर सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो सबसे पहली बार संगठित माफिया गिरोहों के खिलाफ कार्यवाही उनकी सरकार ने की थी। उक्त  कार्यवाही में गोरखपुर का चर्चित माफिया और बाद में पार्टी बदल बदल कर माननीय मंत्री बनने वाला हरिशंकर तिवारी और विधायक चुना जाने वाला वीरेंद्र शाही, यह दोनो माफिया सरगना पकड़े गए थे । गोरखपुर क्षेत्र में ब्राह्मण क्षत्रिय जातिगत आधार पर अपराध और माफिया का एक बड़ा संगठित संजाल था, जो लंबे समय तक पूरे पूर्वांचल को संक्रमित किये रहा। 

दोनो ही जातियों के युवा इन दोनों माफिया सरगनाओं के प्रति आकर्षित और मोहित थे, जो अनावश्यक रूप से उनके आपसी विवाद में निरर्थक ही मरते कटते रहे। नॉर्थ इंस्टर्न रेलवे के जोनल मुख्यालय होने के कारण, गोरखपुर रेलवे के बड़े ठेकों में भी यह दोनो सरगना घुसे। दोनो ने ही वक्त ज़रूरत पर एक दूसरे की अंदरूनी मदद भी की। फिर और भी नेता जातिगत और माफिया वर्चस्व के आधार पर तो बंटे ही यह अपराध और जातिगत ध्रुवीकरण का यह संक्रमण अन्य सरकारी विभागों में  भी फैल गया और फिर भला पुलिस कैसे इस राजरोग से बचती ! 

नेता पहले बदमाश को संरक्षण देता है और फिर इसलिए उसे पालता और बढ़ावा देता है कि वह, बदमाश, चुनाव में उस नेता का भौकाल बनाता है। बाद में जब बदमाशों को यह लगने लगा कि जब उनके बाहुबल के आधार पर नेता, सांसद, विधायक और मंत्री तक बन जाता है, तो फिर वे ही क्यों न माननीय बन जांय। बस यहीं से राजनीति का अपराधीकरण या अपराध का राजनीतिकरण शुरू हो गया। 
वीर बहादुर सिंह के समय यह दोनो माफिया सरगना, पहली बार एनएसए, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल भेजे गए थे। तभी माफिया गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिये 1986 में यूपी गैंगस्टर निवारण अधिनियम लाया गया था। यह अधिनियम पुलिस को व्यापक अधिकार देता है और इस अधिनियम में जमानत आदि के प्राविधान सामान्य अपराधों से अधिक कड़े हैं। अतः इसका असर भी अपराधियों पर पड़ा और माफियाओं की गतिविधियों पर लगाम भी लगी। 

लेकिन माफियाओं ने अपना स्वरूप बदला और वे विभिन्न सरकारी ठेकों में घुस गए। अब वे कारोबार में घुसे। रेलवे के ठेकों के अतिरिक्त, खनन और अन्य सरकारी ठेकों में भी उन्होंने अपना संजाल फैलाया। सरकार ने ठेके देने के लिये ठेकेदारों के चरित्र प्रमाणपत्र और पुलिस वेरिफिकेशन के नियम बनाये तो, इन माफियाओं ने अपने सहयोगियों, जिसके क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं थे, के नाम पर ठेके लेने लगे। 

अब इससे जो, धन आया, उससे माफिया का एक नया स्वरूप विकसित हुआ, जिंसमे ठेके तो माफिया दिलाता है और उसका कुछ पैसा लेता है, पर काम अन्य लोग करते हैं। यह एक नए प्रकार की रंगदारी और सामंतवाद का जन्म था जिंसमे इलाके की बड़ी बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी भी अपना काम सुचारू रूप से चलाने के लिये खलवंदना करने लगीं। बिना श्रम से अर्जित पूंजी जब आती है तो वह अपराध की ओर स्वाभाविक रूप से ले जाती है। 


इस प्रकार राजनीति, ठेका, और माफिया का जो गठजोड़ बना वह तमाम कानून लागू करने वाली एजेंसियों पर भारी पड़ा। गैगस्टर एक्ट में अचानक धनी और सम्पन्न हो जाने वाले लोगों पर भी नज़र रखने का एक प्राविधान था। उनके संपत्ति के स्रोत की जांच और अगर वह सम्पत्ति उस गिरोह के अपराधकर्म से संचित है तो, उसकी जब्ती के भी प्रविधान हैं। पर इन सब पर कार्यवाही उतनी नहीं हुयी जितने मनोयोग से होनी चाहिए। आज विकास दुबे के सहयोगी जय बाजपेयी की संपत्तियों की खबर मिल रही है और यह भी खबर है कि इनकम टैक्स विभाग ने भी इसकी जांच शुरू कर दी है। 

यह भी तो पूछा जा सकता है कि, जय बाजपेयी की, लगातार बढ़ती संपत्तियों के बीच, इनकम टैक्स विभाग का इन्वेस्टिगेशन विंग क्या कर रहा था ? जय बाजपेयी 300 रुपये रोज़ पर एक प्रिंटिंग प्रेस में कुछ ही सालों पहले काम करता था और आज उसकी संपत्तियां कानपुर से लेकर दुबई, सिंगापुर तक फैली हैं। क्या यह आर्थिक साम्राज्य विस्तार असामान्य नही लगता है ? 

पुलिस, राजस्व और आयकर इन तीनो कानून लागू करने वाली एजेंसियों को साथ ही मिल कर इन माफियाओं के काले साम्राज्य पर हमला करना और शिकंजा कसना पड़ेगा तभी माफियाओं  का संजाल टूटेगा। माफिया एक समानांतर सरकार की तरह होता है। पुलिस से लेकर सरकार तक उनकी पैठ होती है और ज़रूरत पड़ने पर एक दूसरे के विपरीत रहने वाले माफिया अपने आर्थिक हितों के लिये एक दूसरे के साथ समझौता भी कर लेते हैं। 


अपराध नियंत्रण हेतु, देश की विधि व्यवस्था में कानूनी प्रविधानो की कमी नहीं है। गैंगस्टर एक्ट 1986 के बाद और भी सख्त कानून बने हैं पर उन सब कानूनो के तात्कालिक असर के बाद, इन माफिया गिरोहों पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है, राजनीति में उनकी पैठ, धमक और हनक। सरकार एसओ चौबेपुर विनय तिवारी को इस कांड से जोड़ कर उसे जेल भेज दे या बर्खास्त कर दे, पर सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि विनय तिवारी इस पूरे अपराधीकरण के खेल में एक भुनगा है और उसकी बर्खास्तगी से माफियागिरी पर कोई बहुत असर नहीं पड़ेगा। सड़ चुका यह तंत्र, फिर से कोई न कोई नया विनय तिवारी पैदा कर लेगा। उसके पास अनेक विनय तिवारी बनाने का हुनर, सामर्थ्य और राजनीतिक तथा प्रशासनिक कनेक्शन है।

मार्च, 1993 में मुंबई धमाकों के बाद भारत सरकार ने, केंद्रीय गृह सचिव रहे एनएन वोहरा की अध्यक्षता में राजनीति के अपराधीकरण की छानबीन के लिये एक कमेंटी गठित की थी।  इसे क्राइम सिंडिकेट, माफिया संगठनों की गतिविधियों के बारे में हर संभव जानकारी जुटाने और उसका विश्लेषण करने का काम दिया गया था जिन्हें सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संरक्षण मिलता हो। एनएन वोहरा एक आईएएस अफसर थे। उन्होंने छः महीने में  ही अपनी जांच रिपोर्ट पांच अक्टूबर, 1993 को सरकार को सौंप दी थी। लेकिन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट, आज 27 साल बाद भी न जाने कहाँ गुम हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इसमें दाऊद इब्राहिम के साथ नेताओं और पुलिस के नेक्सस की विस्फोटक जानकारियां हैं। इसीलिए कोई भी राजनीतिक दल इसे सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। अपराधियों से किस किस नेता अफसर व्यापारियों के रिश्ते हैं क्या यह जानने का अधिकार जनता को नहीं है ?


रिपोर्ट सौंपने के दो साल बाद तक इसे संसद में नहीं रखा गया, जबकि इसे संसद के पटल पर रखने की मांग जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा करती रही और जब भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस करती रहती है पर 1995 से अब तक दोनो ही दल लंबे समय तक सरकार में रह चुके हैं और भाजपा तो अब भी सत्ता में है पर यह रिपोर्ट न तो सार्वजनिक की गयी और न ही सार्वजनिक की जा रही है । 1995 में एक सनसनीखेज  हत्याकांड हुआ, नैना साहनी का । वह भी राजनीति के अपराधीकरण का मामला था। तब तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने, अगस्त, 1995 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट के कुछ पन्ने सार्वजनिक किए। यह रिपोर्ट 100 से ज्यादा पन्नों की है लेकिन सरकार ने सिर्फ 12 पन्ने सार्वजनिक किए। कोई नाम सार्वजनिक नहीं किया गया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नेक्सस में कुछ एनजीओ और बड़े पत्रकार भी शामिल थे।

जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब राज्यसभा के सांसद दिनेश त्रिवेदी ने वोहरा कमिटी रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की। दिनेश त्रिवेदी ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिये सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की पर सरकार ने अदालत से कह दिया कि वह कोई भी रिपोर्ट पटल पर रखे या न रखे जाने का निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र है, और उसने सदन के पटल पर यह रिपोर्ट न रखने का निर्णय लिया है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की यह बात भी मान ली। लेकिन अभी भी इस रिपोर्ट में क्या है यह रहस्य खुलने का इंतज़ार देश को है। 

इस बीच बीते चार आम चुनाव से राजनीति में आपराधिकरण तेजी से बढ़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में इसका जिक्र किया है। 2004 में 24% सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी, लेकिन 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 30 पर्सेंट और 2014 में 34 पर्सेंट हो गई। चुनाव आयोग के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 43 पर्सेंट सांसदों के खिलाफ गंभार अपराध के मामले लंबित हैं।

फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद, एक महत्वपूर्ण आदेश दिया कि, राजनीतिक दलों को आपराधिक रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के बारे में खुद जनता को जानकारी देनी होगी। अदालत ने यह भी कहा है कि अगर इस पर अमल नहीं हुआ तो अवमानना की कार्रवाई होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि नेताओं, अपराधियों, अफसरों और पुलिस के बीच गठजोड़ को जड़ से खत्म करने की कोशिश क्यों नहीं होती? 

आखिर सरकार इस मामले पर आगे बढ़ कर सभी दलों से बात करके इस अपराधीकरण के संक्रमण को रोकने के लिये कोई सार्थक पहल क्यों नहीं करती ? पहल तो दूर की बात है, इस रिपोर्ट को नरेंद्र मोदी सरकार ने भी सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटाई । जबकि इन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि, एक साल के अंदर सभी दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बना कर उनके मुकदमों का निस्तारण किया जाएगा।  26 सितंबर, 2018 को चीफ जस्टिस दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को 'लोकतंत्र के महल में दीमक' करार दिया था।

तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्र ने एक मुक़दमे के फैसले में,1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के बाद गठित एनएन वोहरा कमिटी की रिपोर्ट का भी उल्लेख किया और यह टिप्पणी की कि, 
" भारतीय पॉलिटिकल सिस्टम में राजनीति का अपराधीकरण कोई अनजान विषय नहीं है बल्कि इसका सबसे दमदार उदाहरण तो 1993 के मुंबई धमाकों के दौरान दिखा जो क्रिमिनल गैंग्स, पुलिस, कस्टम अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं के नेटवर्क का परिणाम था।"


चीफ जस्टिस मिश्रा ने बताया कि कैसे इसमें सीबीआई, आईबी, रॉ के अधिकारियों ने इनपुट दिया कि आपराधिक नेटवर्क समानांतर सत्ता चला रहे हैं। वोहरा कमिटी की रिपोर्ट में कुछ ऐसे अपराधियों का जिक्र भी है जो स्थानीय निकायों, विधानसभाओं और संसद के सदस्य बन गए। पांच जजों की बेंच ने कई ऐसे पीआईएल की सुनवाई की, जिनमें दोषी ठहराए जाने से पहले ही आरोपों के आधार पर नेताओं की सदस्यता खत्म करने की अपील की गई थी। हालांकि बेंच ने इस पर कार्रवाई का अंतिम फैसला संसद पर छोड़ दिया।

सरकार को एक और अधिकार है कि वह कोई भी आपराधिक मामला वापस ले सकती है। यह किसी भी वादी का एक वैधानिक अधिकार है। आपराधिक मामलों में वादी सरकार होती है तो सरकार चाहे तो वह कोई भी मुकदमा वापस ले सकती है। किसका मुकदमा वापस होना है, कौन सा मुकदमा वापस होना है और कब वापस होना है यह निर्णय सरकार का होता है और सरकार का यह निर्णय शुद्ध रूप से राजनीतिक निर्णय होता है। जिले से जिसका मुकदमा वापस होना है उसके बारे में डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट और एसपी से रिपोर्ट मांगी जाती है और रिपोर्ट में मुक़दमे वापसी के विरोध में लिखा जाता है, फ़िर भी सरकार मुकदमा वापस ले लेती है। क्या कभी यह सोचा गया है कि इस प्रकार के मुक़दमे वापसी का क्या असर पुलिस पर पड़ता है ? पुलिस ने झूठा मुकदमा लिख लिया, रंजिश से मुकदमा लिखा दिया गया, पोलिटिकल दुश्मनी है आदि आदि अनेक तर्क दिए जाते हैं पर कोई यह नहीं कहता कि फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट गठित कर के इसकी सुनवाई कर ली जाय और तब राजनीति कीजिए। 


आज जो भी बहस माफिया और गुंडों के बारे में आप देख सुन पढ़ रहे हैं उन सबका स्रोत राजनीति से जुड़ा है। राजनीति के अपराधीकरण और जातीय तथा धार्मिक भेदभाव ने पुलिस को गहरे तक संक्रमित कर रखा है। दिक्कत है कि इसका इलाज करने में जो सक्षम है, यानी सरकार, वह खुद भी इससे अधिक संक्रमित है। अब उसका इलाज कौन करे, असल सवाल यही है। सभी राजनीतिक दलों को, कम से कम एक बात पर एकमत होना पड़ेगा कि वे किसी भी आपराधिक व्यक्ति का न तो पक्ष लें और न ही उन्हें अपने दलों में शामिल करें। आज हालत यह हो गई है कि बुरी मुद्रा ने अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया है। विकास दुबे पकड़ा जा सकता है और यह भी हो सकता है कि पकड़ते समय कोई मुठभेड़ हो जाय तो उसमें वह मार भी दिया जाय । उसका आर्थिक साम्राज्य तहस नहस भी हो सकता है। पर इस बात की क्या गारंटी है कि कल कोई दूसरा विकास दुबे नहीं पैदा होगा। असुर रक्तबीज की तरह होते हैं। क्या आज हमारे रहनुमाओं में, राजनैतिक इतनी इच्छा शक्ति है कि, राजनीति और अपराध का घाल मेल वे रोक सके ?

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