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विकास दुबे एनकाउंटर: किसको डर और किससे डर? अब तक कितने शहीद पुलिसवालों को इंसाफ मिला?


- धीरेश सैनी
विकास दुबे को लेकर कुछ स्टेटमेंट्स पढ़े। राज़ खुल जाने का डर और पुलिस ने बदला लिया, इन बिंदुओं पर काफ़ी कुछ लिखा दिखाई दिया। 'राज़ खुलने का डर'' इस बारे में कुछ दोस्तों ने ठीक ही लिखा कि किसको डर और किस से डर। जब मीडिया और डेमोक्रेसी की संस्थाएं नियंत्रित हों तो कैसा डर? गुजरात के नरसंहार से लेकर अब तक जाने कितने स्ट्रिंग ऑपरेशन हो चुके हैं जिनमें हत्याओं और सामूहिक बलात्कार में शामिल रहे अपराधी अपनी करतूतों का बयान करते हैं, कितनी बार हत्यारे ख़ासकर लिंचिंग में शामिल रहने वाले ख़ुद ही वीडियो बनाकर वायरल करते रहे हैं।

फोर्स में अपने आठ लोगों की मौत का बदला लेने के लिए गुस्से की बात भी ऐसी ही है। किसी भी मामले में सत्ता अनुकूल गुस्सा हो तो अलग बात है वरना उत्तर प्रदेश में वर्तमान भाजपा सरकार बनते ही पुलिस थानों और उसके अफ़सरों पर हमले की ताबड़तोड़ घटनाएं हुई थीं। युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं और भगवा गमछे वालों पर ही इन हमलों का आरोप था।वीडियो भी वायरल हुए थे। एकाध प्रशासनिक अधिकारी भी चपेट में आए। इस गुस्से-वुस्से के सरेंडर होने को लेकर उन दिनों काफ़ी-कुछ लिखा भी गया था।
सहारनपुर के एसएसपी लव कुमार की सरकारी कोठी पर ही हमला कर दिया गया था। यह अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी। एसपी को पुलिस की भाषा में कप्तान कहा जाता है। कप्तान की पत्नी और बच्चे जान बचाने के लिए पशुओं के साथ छिपे बैठे रहे थे। सर्च कीजिएगा तो लव कुमार की पत्नी की आपबीती पढ़ने को मिल जाएगी। वे बताती हैं कि भीड़ भाजपा एमपी के साथ आई थी। गुस्सा किस बात को लेकर था? एसपी साम्प्रदायिक हिंसा की आशंका को टालने के लिए जुलूस को अचानक नये रुट से एक ख़ास गाँव जाने से रोक रहे थे।

इंसपेक्टर सुबोध सिंह। राजपूत  ही थे। उनकी हत्या एक बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा की साजिश को नाकाम कर देने की वजह से ही तो की गई थी। नृशंसतापूर्वक। हिन्दुत्ववादी संगठनों के लोग ही तो आरोपी थे। सुबोध सिंह के ख़िलाफ़ ही जमकर ज़हर वायरल किया जाता रहा। आरोपी जमानत पर बाहर आए तो जयश्रीराम और वंदे मातरम के नारों के बीच फूलमालाएं पहनाकर उनका स्वागत किया गया।

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