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आपदा में अवसर: सरकार लुटे-पिटे नागरिकों का खून चूस कर खजाना भरने में व्यस्त है !



- शिशिर सोनी

लगता है मोदी सरकार ने भांप लिया था कि आपदा आने वाली है। आपदा को तिजोरी के अवसर में बदला जा सकता हैै। शायद इसलिए कोरोना संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन लागू होने से 10 दिन पहले 14 मार्च को भारत सरकार ने पेट्रोल और डीजल दोनों ईंधनों पर तीन-तीन रुपए उत्पाद शुल्क बढ़ा दिये। इस बढ़ोतरी के बाद सरकार उत्पाद शुल्क बढ़ाने की उस सीमा तक पहुंच गई, जिसकी मंजूरी उसे संसद से मिली थी। इसलिए संसद का बजट सत्र खत्म होने से ठीक पहले 23 मार्च को सरकार ने एक प्रस्ताव के जरिए उत्पाद शुल्क में और बढ़ोतरी की मंजूरी ले ली। घोषित तौर पर आपदा को अवसर बनाना था! 

सरकार ने जब संसद से उत्पाद शुल्क बढ़ाने की मंजूरी ली तब इसे रूटीन विधाई कार्य माना गया। उम्मीद थी कि सरकार जरूरत पड़ने पर धीरे धीरे उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी करेगी। लेकिन सरकार की मंशा तो कुछ और थी। मई के पहले हफ्ते में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल मिट्टी के मोल मिल रहा था और इसकी कीमत 20 डॉलर प्रति बैरल के आसपास थी, जो 1999 के बाद का सबसे निचला स्तर था, तब केंद्र सरकार ने छह मई को अचानक पेट्रोल पर 10 रुपए प्रति लीटर और डीजल पर 13 रुपए प्रति लीटर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया। इस तरह कच्चा तेल सस्ता होने का जो लाभ आम ग्राहक को मिलने वाला था उसे केंद्र सरकार ने निगल लिया। रही सही कसर राज्य सरकारों ने पेट्रोल, डीजल पर वैट बढ़ा कर पूरा कर दिया। 

केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ाया और राज्यों ने वैट बढ़ाए तो पेट्रोलियम कंपनियों को भी आम लोगों का खून चूसने की छूट मिल गई। ऑयल कंपनियों ने तय किया कि 7 जून से कीमतों की रोजाना समीक्षा होगी। समीक्षा के नाम पर लगातार 21 दिनो से लगातार दाम बढ़ा रहे हैं। सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ा कर कंपनियों से जो वसूली की थी, ऑयल कंपनियों ने लगातार बेशर्मी के साथ दाम बढ़ा कर वसूल लिया। आज दिल्ली के लोग 80.38 रुपए लीटर में जो पेट्रोल खरीद रहे हैं।  डीज़ल 80.40 रुपये प्रति लीटर लेने को अभिशप्त हैं। 

उसमें 51 रुपया यानी 64 फीसदी हिस्सा केंद्र व राज्यों के टैक्स का है। केंद्र सरकार 33 रुपया और राज्य सरकार 18 रुपया कर ले रही है। इसी तरह एक लीटर डीजल पर 50 रुपया यानी करीब 63 फीसदी हिस्सा कर का है, जिसमें केंद्र का 32 रुपया और दिल्ली सरकार का हिस्सा 18 रुपया है। ऐसे ही कमोबेश बंटवारा अन्य राज्यों का है।

डीजल पर केंद्र का शुल्क छह साल में 820 फीसदी बढ़ा है। 3 महीने में पेट्रोल, डीज़ल के 22 बार दाम बढ़ाकर इस आफत के समय को अवसर बनाकर आमलोगों की जेब से 18 लाख करोड़ रुपये झटक लिए गए। 

सरकार ने कोरोना काल में उलटे आमलोगों की मुश्किलें बढ़ाई हैं। राहत के नाम पर सरकार ने जो पैकेज घोषित किया वह बुनियादी रूप से लोन स्कीम का ऐलान था। जो लोगों को कर्ज के एक और भँवर जाल में फ़सायेगा। ये राहत पैकेज कैसे है, मुझे आज तक समझ नहीं आया।सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की चीजों की खुदरा महंगाई दर 9.28 फीसदी पहुंच गई है। 



ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं हो रहा है। किसी देश ने आपदा को इस तरह से अवसर नहीं बनाया है। दुनिया के सभ्य देशों में कोरोना वायरस की जांच मुफ्त में हो रही है। इलाज की सुविधाएं सरकार जुटा रही है। लोगों के हाथ में नकद पैसे दिए जा रहे हैं। सरकारें निजी कंपनियों को फंड मुहैया करा रही है ताकि वे अपने कर्मचारियों का वेतन न काटें। उनकी छंटनी न करें। लेकिन हमारे देश भारत में इन सबका उलटा हो रहा है। कोरोना जांच के नाम पर लूट मची है। मरीजों की बेतहाशा बढ़ती संख्या के बावजूद निजी अस्पतालों का टेकओवर नहीं किया जा रहा है। उन्हें लूटने की पूरी आजादी दी गई है। निजी कंपनियों को मानों मनमाने तरीके से कर्मचारियों को निकालने की छूट मिल गई हो। सब सरकारों की आँखों के सामने हो रहा है। मेरे लिए बनी सरकारें हमारे दुखों पर मौन हैं। करोड़ों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट है।

इतिहास इस बात को भी याद रखेगा कि जिस समय लोग लोग पाई-पाई को मोहताज थे। दाने-दाने को तरस रहे थे। कोरोना जांच से लेकर इलाज तक के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। बाकी बीमारियों से निजात पाने के लिए अस्पतालों से इलाज की भीख मांगते हुए उनके ड्योढी पर दम तोड़ रहे थे। नवजात को जनने के बाद मां मारी गई। नवजात दुनिया देखे उससे पहले गुजर गया। सब इलाज के अभाव में। उस समय देश की संवेदनहीन सरकारें थके-हारे, लुटे-पिटे नागरिकों का खून चूस कर खजाना भरने में लगी थी।

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