- नितिन ठाकुर
टिकटोक के इंडिया हेड ने कल लिखा था कि उनकी कंपनी ने भारत में इंटरनेट का लोकतांत्रिकरण किया था. सच तो ये है कि बहुत लोग इस बात की गहराई को समझ नहीं पाएंगे और ना उसके असर को. चौदह भाषाओं और तीस करोड़ यूज़र्स के साथ टिकटोक ने अपने अनगढ़ कंटेंट क्रिएटर्स के दम पर तुलनात्मक रूप से नफ़ीस यूट्यूबर्स को जैसी टक्कर दी थी वो बता रहा है कि उसे लौटना ही है. ये सरल सा नियम है कि जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उसे हटाया नहीं जा सकता. हटाएंगे तो स्पेस बनेगा लेकिन वो कैसे ना कैसे भरा ज़रूर जाएगा, फिर चाहे जिस रूप में भी.
कैरी मिनाती बनाम टिकटोक वालों की बहस सिर्फ व्यूज़ पाने की होड़ नहीं थी बल्कि एलीट और सो कॉल्ड गंभीर क्रिएटर्स की उन लोगों से लड़ाई थी जिन्हें वो खुद से नीचे मानते रहे. अचानक इन क्रिएटर्स ने देखा कि टिकटोक पर पैरलल वर्ल्ड बन गया है और उस दुनिया के अपने सितारे हैं जो मुख्यधारा की मीडिया में जगह पाने लगे हैं, यूट्यूबर्स के मुकाबले बेहद जल्दी. अब तो हालत ये थी कि फिल्म इंडस्ट्री के बड़े नाम टिकटोक पर पहुंचकर उसे संभ्रांत वर्ग की वैधता प्रदान करने लगे थे और ये संभवत: अकेली चीज़ है जिसकी कमी टिकटोक महसूस करता होगा.
टिकटोक के इंडिया हेड ने कल लिखा था कि उनकी कंपनी ने भारत में इंटरनेट का लोकतांत्रिकरण किया था. सच तो ये है कि बहुत लोग इस बात की गहराई को समझ नहीं पाएंगे और ना उसके असर को. चौदह भाषाओं और तीस करोड़ यूज़र्स के साथ टिकटोक ने अपने अनगढ़ कंटेंट क्रिएटर्स के दम पर तुलनात्मक रूप से नफ़ीस यूट्यूबर्स को जैसी टक्कर दी थी वो बता रहा है कि उसे लौटना ही है. ये सरल सा नियम है कि जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उसे हटाया नहीं जा सकता. हटाएंगे तो स्पेस बनेगा लेकिन वो कैसे ना कैसे भरा ज़रूर जाएगा, फिर चाहे जिस रूप में भी.
कैरी मिनाती बनाम टिकटोक वालों की बहस सिर्फ व्यूज़ पाने की होड़ नहीं थी बल्कि एलीट और सो कॉल्ड गंभीर क्रिएटर्स की उन लोगों से लड़ाई थी जिन्हें वो खुद से नीचे मानते रहे. अचानक इन क्रिएटर्स ने देखा कि टिकटोक पर पैरलल वर्ल्ड बन गया है और उस दुनिया के अपने सितारे हैं जो मुख्यधारा की मीडिया में जगह पाने लगे हैं, यूट्यूबर्स के मुकाबले बेहद जल्दी. अब तो हालत ये थी कि फिल्म इंडस्ट्री के बड़े नाम टिकटोक पर पहुंचकर उसे संभ्रांत वर्ग की वैधता प्रदान करने लगे थे और ये संभवत: अकेली चीज़ है जिसकी कमी टिकटोक महसूस करता होगा.
टिकटोक की ही सिस्टर कंपनी है हैलो. वो फेसबुक की तरह काम करती है. अगर आप वहां टहलते तो पाते कि टिकटोक जैसे मूड वालों की भीड़ वहां भी है. उधर ट्विटर की तरह संगठित पीआर या ट्रेंड नहीं चलता, ना ही फेसबुक जैसी लंबी बहस हैं लेकिन नामी-ग़िरामी कंपनियां उसकी ताकत पहचान गई थीं, नतीजतन सभी के एकाउंट बन चुके थे. मीडिया वालों को तो अपना सामान बेचने के लिए ख़ासा ट्रैफिक मिलने भी लगा था. एकाउंट वैरिफिकेशन ज़रा आसान है इसलिए उस ख़ास निशान की चाह रखनेवालों ने भी हैलो पर डेरा जमाया.
दोनों कंपनियों की मालिक बाइटडांस नाम की कंपनी का हिंदुस्तान को लेकर विज़न लंबा-चौड़ा है और मैं मान ही नहीं सकता कि एक झोंक में उठाए किसी कदम से वो निराश होकर लौटेगी. चीनियों को पता है कि धंधा कैसे होता है. उनके टारगेट पर जैसी भीड़ है वो असल हिंदुस्तान बनाती है, व्यूज़ के मामले में उसकी ताकत वोट जैसी है जहां हर कोई एक है. यही वो अकेली चीज़ है जिसके बलबूते विज्ञापन का धंधा फलता-फूलता है. कल-परसों तक खुद डेटा चोरी के आरोप झेल रही सरकार ने अचानक वही इल्ज़ाम लगाकर जिन्हें बैन किया है वो जानते हैं कि देर सवेर वापसी होकर रहेगी. फेसबुक के ख़िलाफ तो डेटा बेचने के सबूत थे. जिस देश में उसने ये किया वहां वो खुद को बैन से बचा ले गई. अमेरिका, ब्रिटेन या बाकी यूरोप में डेटा को लेकर एक समझदारी है जो भारत में पनपी भी नहीं इसलिए डेटा वाले आरोपों को कोई गंभीर से नहीं लेगा.
कंपनी के दफ्तर गुड़गांव से लेकर मुंबई में हैं. पिछले दिनों कई मीडिया वालों ने वहां करियर शुरू किया था. जो ऐसी कंपनियों के अंदरूनी कामकाज से परिचित हैं वो जानते हैं कि चीनी लोग कंपनी के रोज़मर्रा वाले कामों में गहरा दखल रखते हैं. अपने भारतीय सहकर्मियों से बेहतर तालमेल के लिए वो अपने भारतीय नाम रखते हैं. भारत की भाषाएं सीखते हैं.
दोनों कंपनियों की मालिक बाइटडांस नाम की कंपनी का हिंदुस्तान को लेकर विज़न लंबा-चौड़ा है और मैं मान ही नहीं सकता कि एक झोंक में उठाए किसी कदम से वो निराश होकर लौटेगी. चीनियों को पता है कि धंधा कैसे होता है. उनके टारगेट पर जैसी भीड़ है वो असल हिंदुस्तान बनाती है, व्यूज़ के मामले में उसकी ताकत वोट जैसी है जहां हर कोई एक है. यही वो अकेली चीज़ है जिसके बलबूते विज्ञापन का धंधा फलता-फूलता है. कल-परसों तक खुद डेटा चोरी के आरोप झेल रही सरकार ने अचानक वही इल्ज़ाम लगाकर जिन्हें बैन किया है वो जानते हैं कि देर सवेर वापसी होकर रहेगी. फेसबुक के ख़िलाफ तो डेटा बेचने के सबूत थे. जिस देश में उसने ये किया वहां वो खुद को बैन से बचा ले गई. अमेरिका, ब्रिटेन या बाकी यूरोप में डेटा को लेकर एक समझदारी है जो भारत में पनपी भी नहीं इसलिए डेटा वाले आरोपों को कोई गंभीर से नहीं लेगा.
कंपनी के दफ्तर गुड़गांव से लेकर मुंबई में हैं. पिछले दिनों कई मीडिया वालों ने वहां करियर शुरू किया था. जो ऐसी कंपनियों के अंदरूनी कामकाज से परिचित हैं वो जानते हैं कि चीनी लोग कंपनी के रोज़मर्रा वाले कामों में गहरा दखल रखते हैं. अपने भारतीय सहकर्मियों से बेहतर तालमेल के लिए वो अपने भारतीय नाम रखते हैं. भारत की भाषाएं सीखते हैं.
ऐसी कंपनियों को हराना उतना आसान नहीं है, तब तो कतई नहीं जब वो चीन जैसे चालाक देश की वृहद रणनीति का हिस्सा बनकर आई हों. ये केवल पैसा नहीं बटोरते बल्कि लोगों का मानस बदलते हैं. जितनी मुझे जानकारी है तो कंपनी जल्द ही एक गंभीर न्यूज़ प्लेटफॉर्म खोलने वाली था या खोलेगी और टिकटोक-हैलो की रीच का इस्तेमाल कंटेंट फैलाने में करेगी. जो भीड़ इन दोनों जगहों पर बिना ये जाने अब तक सक्रिय थी कि कंपनी चीनी है, क्या आप उससे उम्मीद करते हैं कि वो इन्हीं जगहों से आई ख़बर को पढ़कर फिल्टर कर सकेगा कि ये समाचार प्रो-चाइना है? भारत में उस लेवल की ग्राहक जागरुकता बस सपना है. चीन से तनातनी के दौरान सरकार ने बैन लगाया है, और यही वजह है कि इन प्लेटफॉर्म्स से दिन रात चिपके रहनेवाले भी कोई विरोध नहीं कर पाए.
आम दिनों में अगर सरकार ने ये किया होता तो विमर्श के कई कोण देखे जाते. जिन टिकटोकियों ने यूट्यूबर्स को आतंकित कर दिया था, क्या आपको लगता है कि वो चुप रहते? ये लोग रोज़ वीडियोज़ डाल डालकर धान बो देते. पूरे हिंंदुस्तान में फैले अपने प्रशंसकों को बताते कि डेटा चोरी के नाम पर कैसे उनकी रोज़ी रोटी छीनी जा रही है, और तब यही चीनी मज़े में बैठते कि कैसे उन्होंने देश के लोगों को उनकी सरकार से लड़वा दिया है. सच तो ये है कि मोबाइल बेचनेवाली चीनी कंपनियां हों या सॉफ्टवेयर बेचनेवाले, सभी अपनी सरकार की योजना के हिस्से हैं. ये माननेकी कोई वजह नहीं है कि अगर जिनपिंग ने चाहा तो तमाम कंपनियां उन्हें हर डेटा उपलब्ध नहीं कराएँगी. कंपनियों के मालिक जानते हैं कि अपनी सरकार की सेवा करके ही वो दूसरे देशों में सुरक्षित हैं. चीन में लोकतंत्र भी नहीं कि अमेरिका-ब्रिटेन की तरह कहीं सुनवाई हो जाएगी.
आम दिनों में अगर सरकार ने ये किया होता तो विमर्श के कई कोण देखे जाते. जिन टिकटोकियों ने यूट्यूबर्स को आतंकित कर दिया था, क्या आपको लगता है कि वो चुप रहते? ये लोग रोज़ वीडियोज़ डाल डालकर धान बो देते. पूरे हिंंदुस्तान में फैले अपने प्रशंसकों को बताते कि डेटा चोरी के नाम पर कैसे उनकी रोज़ी रोटी छीनी जा रही है, और तब यही चीनी मज़े में बैठते कि कैसे उन्होंने देश के लोगों को उनकी सरकार से लड़वा दिया है. सच तो ये है कि मोबाइल बेचनेवाली चीनी कंपनियां हों या सॉफ्टवेयर बेचनेवाले, सभी अपनी सरकार की योजना के हिस्से हैं. ये माननेकी कोई वजह नहीं है कि अगर जिनपिंग ने चाहा तो तमाम कंपनियां उन्हें हर डेटा उपलब्ध नहीं कराएँगी. कंपनियों के मालिक जानते हैं कि अपनी सरकार की सेवा करके ही वो दूसरे देशों में सुरक्षित हैं. चीन में लोकतंत्र भी नहीं कि अमेरिका-ब्रिटेन की तरह कहीं सुनवाई हो जाएगी.
भारत की सरकार अब भी ऐप्स पर हमलावर है ना कि मोबाइल कंपनियों पर जो डेटा चोरी में अधिक माहिर हैं, क्योंकि भारत में उनका निवेश पुराना और अधिक है. इसके अलावा वो ताकतवर बहुत हैं. उनकी गहरी घुसपैठ है. सरकारी ठेकों में वो बोली लगाते हैं सो अनुमान लगाना कठिन नहीं कि राजनीति और नौकरशाही में इनका हस्तक्षेप कैसा होगा. अगर वाकई सरकार सरहद वाले झगड़े के बदले से आगे बढ़कर डेटा चोरी के मसले पर कुछ करना चाहती है तो इन चीनी कंपनियों के मोबाइलों को भी बैन करे , और फिर टिकटोक से लेकर मोबाइल तक ऐसे विकल्प उपलब्ध कराने को लेकर सोचे कि स्पेस भर जाए.
सस्ती दरों पर माल उपलब्ध कराना ही एकमात्र रास्ता होगा जिसके बारे में मुझे निजी तौर पर लगता है अभी हमें चीनियों के बराबर आने में समय लगेगा. चीन से टक्कर में हमेशा प्रतिक्रियात्मक और तात्कालिक उपाय काम नहीं आएंगे. वो पचास सालों में इस तरफ बढ़े हैं और हम असली ख़तरे को समझने के बजाय गलवान की घाटी में उलझे हैं. गलवान से बाहर ख़तरे और भी बड़े हैं. चीन को गलवान में तो रोका ही जाना चाहिए, देश के भीतर भी उसकी पकड़ कमज़ोर करना ज़रूरी है लेकिन आहिस्ते से और सोच समझकर.
सस्ती दरों पर माल उपलब्ध कराना ही एकमात्र रास्ता होगा जिसके बारे में मुझे निजी तौर पर लगता है अभी हमें चीनियों के बराबर आने में समय लगेगा. चीन से टक्कर में हमेशा प्रतिक्रियात्मक और तात्कालिक उपाय काम नहीं आएंगे. वो पचास सालों में इस तरफ बढ़े हैं और हम असली ख़तरे को समझने के बजाय गलवान की घाटी में उलझे हैं. गलवान से बाहर ख़तरे और भी बड़े हैं. चीन को गलवान में तो रोका ही जाना चाहिए, देश के भीतर भी उसकी पकड़ कमज़ोर करना ज़रूरी है लेकिन आहिस्ते से और सोच समझकर.
No comments:
Post a Comment