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जेएनयू की अहमियत सिर्फ वही समझ सकते हैं जिन्होंने इस यूनिवर्सिटी को नजदीक से जाना है

- पल्लवी प्रकाश

2012  के आखिरी महीनों में ( अक्टूबर या नवम्बर) में मेरे पास एक बार किसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी से इंटरव्यू के लिए कॉल आई. ताज्जुब इसलिए हुआ कि मैंने वहां अप्लाई नहीं किया था, ना ही कोई जानकारी थी. नोएडा की एक डीम्ड यूनिवर्सिटी में लॉ स्कूल में लॉ के बीए.एल.एल.बी कोर्स के लिए हिंदी की फैकल्टी की तलाश थी. फोन करने वाली ने बताया कि टाइम्स जॉब्स से उसने मेरा प्रोफाइल निकाला है और दो दिन बाद ही इंटरव्यू के लिए बुलाया. मैंने भी सोच कि जाकर देखती हूँ, कैसा होता है इनके यहाँ सेलेक्शन. 

खैर, वहां एंट्री के लिए बहुत ताम-झाम थे, बायोमेट्रिक आदि की औपचारिकता पूरी हुई. फिर एक डेमो हुआ स्टूडेंट्स के साथ, अगला राउंड डायरेक्टर के साथ, तीसरा राउंड एच.आर. वालों के साथ. वहां जाकर जितना मुझे समझ में आया कि हिंदी फैकल्टी की जोर-शोर से तलाश चल रही थी क्योंकि वह अब उस साल से कोर्स का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था, और कोई टीचर ना होने की स्थिति में हिस्ट्री की टीचर, जो यूपी की थी, वह ही उसे एडिशनल विषय के तौर पर पढ़ा रही थी. डायरेक्टर और वो टीचर, दोनों चाहते थे कि मेंरी जल्दी से जल्दी नियुक्ति हो जाए. मुझे कोई जल्दी नहीं थी, एच.आर. वाले ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि फ़रीदाबाद से नोयडा शिफ्ट हो जाऊं. 

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह शिफ्टिंग पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं. खैर एक दिन बाद फाइनल राउंड प्रो.वीसी. के साथ था, जिसमें मैंने पूछ ही लिया कि नोएडा शिफ्ट करने पर इतना जोर क्यों, तब उन्होंने बताया कि कई बार हम टीचर्स को शनिवार को भी बुलाया करते हैं या अगर कोई भी जरूरत हो तो इसलिए कैम्पस के पास रहना जरूरी है. फिर उन्होंने कहा कि जब आप शिफ्ट करने का माइंड बना लें तो हमें इन्फॉर्म करें, बाकी सब ओके है. मुझे ज्वाइन तो नहीं करना था लेकिन जो चीज़ वहां देखने में अजीब लगी कि हिस्ट्री की टीचर ने मुझसे कहा, मैम, यहाँ सब बहुत पैसेवाले बच्चे आते हैं पढने के लिए, तो हमें उनका खयाल रखना पड़ता है. 

वाकई सब पैसेवाले लग ही रहे थे, बड़ी गाड़ियां थी सबके पास, हाथों में लैपटॉप, लगभग सौ प्रतिशत कान्वेंट से निकले हुए बच्चे. मुझे उसका यह कहना बड़ा अजीब लगा, न तो मुझे शिफ्ट होना था ना ही ज्वाइन करना था, तो मामला खत्म हुआ. उसके काफी बाद जब हरियाणा के लॉ कॉलेज में उसी लॉ के कोर्स के लिए मेरी नियुक्ति हुई तो फिर मुझे लगभग वही माहौल लगा. अगर नोएडा के सौ प्रतिशत बच्चे अंग्रेजीदां थे तो यहाँ साठ प्रतिशत अंग्रेजीदां थे और बाकी चालीस प्रतिशत वही ठेठ देसी. एडमिशन का एक ही क्राइटेरिया था, जो भी महंगी फीस भर सके. दोनों जगह स्टूडेंट्स का रवैया एक सा ही था. 

यहाँ किसी टीचर ने खुद बताया किसी स्टूडेंट्स को किसी गलती के लिए डांटने पर उसने पलट कर जवाब दे दिया कि ‘मास्साब, आपकी सैलरी हमारी फ़ीस के पैसों से ही जाती है. हम अगर बैठ जाएँ तो आपका यह कॉलेज भी बंद हो जाएगा.’ यह सुनने के बाद उस टीचर की बोलती बंद हो गयी थी. तब मुझे जेएनयू की बेतरह याद आई थी. वहां स्टूडेंट्स, अपने टीचर्स का कितना सम्मान करते थे. टीचर्स भी उन्हें कितना प्यार देते थे. एक बार की घटना प्रो. वीरभारत तलवार ने सुनाई थी कि उनका कोई जरूरी पत्र आया था जब वे पीएचडी स्कॉलर थे और उसे देने के लिए विपिनचन्द्र जितने बड़े इतिहासकार खुद चलकर उनके हॉस्टल तक आ गए थे. प्यार, सौहार्द्र और सम्मान का एक अलग ही माहौल था वहां. 

जिन लोगों ने जेएनयू को नजदीक से जाना है, सिर्फ़ वही समझ सकते हैं कि शिक्षा की गुणवत्ता के लिहाज से जेएनयू जैसे संस्थान कितना महत्व रखते हैं, जहाँ एडमिशन महंगी फ़ीस देकर नहीं पाया जा सकता बल्कि सिर्फ़ कठोर इंट्रेंस पास करके ही पाया जा सकता है. जेएनयू में पढना किसी सुंदर सपने के सच होने जैसा ही है. इस बार भी रैंकिंग में दूसरे स्थान पर रह कर उसने फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि टैक्सपेयर्स का पैसा व्यर्थ नहीं जा रहा. हाँ, जब तक जेएनयू है, तब तक उस डीम्ड यूनिर्वसिटी या वैसे ही मशरूमों की तरह फल-फूल रहे शैक्षणिक संस्थानों को खतरा तो रहेगा ही. अंत में जेएनयू के लिए, 
"हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं 
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं"

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