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Wednesday, July 15, 2020

'My kids are not guinea pigs': Los Angeles parent supports remote learning



Los Angeles, US: When Brenda Del Hierro realized her two children would be learning remotely in the fall, she was relieved. Even though she wanted them to go back to classrooms so she could resume her normal life, Brenda believes the risk of catching coronavirus is too great.

"I mean, I was excited for them to go back so I can go back to my normal life as well. But I mean, the risk outweighs everything. I can't risk my kids getting sick or possibly getting somebody else sick or their teachers or vice versa. It's not ideal to have them home, but it's what needs to happen. And I'm so thankful that that was the outcome."she said on Wednesday. Brenda was concerned they might bring the virus home to her mother in law, a breast cancer survivor who lives with the family in the Highland Park area of Los Angeles. 
After weeks of online learning in the spring, the 33-year-old homemaker is hoping for greater communication with teachers and other parents in the fall. She says one of the biggest challenges of home-schooling is keeping her 8-year-old son and 10-year-old daughter engaged.

"My daughter's easier, a little bit easier to motivate, she self-motivates herself, and for my son, it's harder to keep him just engaged. He suffers from ADHD. So, it's he's constantly losing track of what he's doing, or he gets distracted by the littlest thing or a sound from outside or whatever it may be." Del Hierro said she's bothered by the President Trump mandating for all schools in the country to open in the fall.

"I think he should really let the, let schools figure out what they need to do, and he should focus on himself and focus on running other things instead of worrying about the school districts. Everybody's need is different, and for him to really say, hey, schools, you know, teachers are irresponsible. They need to go back to school." said Del Hierro. "But my kids are not guinea pigs. I'm not going to send my kid to school to see if they're going to get COVID and to see if they're going to survive COVID. It's unfair to put that risk on our kids."

Del Hierro said she understands the social aspect of being at school physically, but prefers to have her children home until the school provides a plan for a safe return. Her 10-year-old daughter, Emma, says the school workload at home can be stressful, but thinks it will get improve in the fall.

"I feel like we get more work here than at school because it's not like something where we just go. And if we don't finish our work that time or that day, then we started out the next day," said Emma.

Sunday, July 12, 2020

कोरोना काल : शिक्षा पर गहराते संकट को समझें, देश में सिर्फ शिक्षा के सतही सवालों का बोलबाला है



- कृष्ण कुमार 
मुसीबत कैसी भी हो सामाजिक जीवन में छिपी सच्चाइयों को बाहर लाती है। रेल में बैठकर यात्रा करना रोज़मर्रा की जिंदगी का अंग बन चुका है। इसलिए दुर्घटना हो जाने पर ही रेल व्यवस्था में पसरी असमानता उजागर होती है। कोरोना वायरस की महामारी ने हमारे लोकतंत्र के हर अंग में बसी विषमता आंखों के सामने ला दी है। पिछले तीन महीनों में ऐसे - ऐसे दृश्य दैनिक समाचारों में दिखाई दिए हैं जो इतिहास की विभीषिकाओं में दर्ज होकर अतीत की सामग्री बन चुके थे। इनका विश्लेषण व विवेचन बरसों चलेगा, तभी समाज कोरोना महामारी से पैदा हुए आपात काल को जज़्ब कर पाएगा। 

आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसी विवेचना काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। यही सोचकर शिक्षा की सर्वोच्च वैश्विक संस्था यूनेस्को ने अपने मुख-पत्र का एक समूचा अंक इस विषय पर सोच - विचार के लिए नियत किया है कि कोरोना संकट से पाठ्यक्रम में कौन - कौन से बदलाव आएँगे और आने चाहिए। यह बहस हर देश की शिक्षा व्यवस्था के प्रत्येक स्तर पर चलनी चाहिए। फिलहाल हमारे यहां शिक्षा के सतही सवालों का बोलबाला है। राज्य सरकारों को चिंता है कि परीक्षाएं कैसे ली जाएं। 

नामी संस्थानों में प्रवेश के लिए बड़े जतन से आयोजित की जाने वाली वार्षिक प्रतियोगी परीक्षा रुकी पड़ी है। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता की छाया में फला - फूला कोचिंग व्यवसाय भी सहमा खड़ा है। उधर विश्वविद्यालयों की देखा - देखी स्कूल के विद्यार्थी भी ऑनलाइन पढ़ाई के पात्र बन गए हैं। कई लोगों ने चिंता जाहिर की है कि इंटरनेट की पहुंच स्वयं इतनी विषमता ग्रस्त है कि ऑनलाइन कक्षाएं सबके लिए सुलभ नहीं बनाई जा सकती हैं। डिजिटलीकरण के व्यापारी व विशेषज्ञ जरूर कहेंगे कि वे सारी विषमताएं पाट सकते हैं। बस उन्हें कुछ और खुली छूट दी जाए। 


वे सोचते है कि आर्थिक सुधारों में काफी कसर है। वरना हर ग्रामीण बच्चे के हाथ में स्मार्ट फोन और घर पर लेपटॉप होता। इस फंतासी का न अंत है न जवाब। उत्तरप्रदेश व राजस्थान में मुफ्त लैपटॉप बांटने की मुहिम एक बार चल चुकी है। बहुत मुमकिन है कोरोना के माहौल में दोबारा चल पड़े। शिक्षा व्यवस्था से ज्यादा शिक्षा संबंधी सोच का दिवाला निकला है। नेता, अफ़सर, प्राचार्य, अब किसी प्रश्न की गहराई में नहीं जाना चाहते, यह शायद उनके बस का भी नहीं है। जिनके बस का है उसे उन्होंने हाशिए के उस पार धकेल दिया है। उस व्यक्ति का नाम है अध्यापक। पूरी व्यवस्था में केवल वहीं समझता है, पढ़ाना क्या होता है। आप जैसे ही यह चर्चा किसी अधिकारी या नेता के साथ शुरू करते है, वह फौरन शिक्षकों की बुराई में लग जाता है। यह विमर्श लगातार हावी रहा है कि अच्छे शिक्षक तो प्राचीन काल में होते थे। आज के शिक्षक को वेतन से मतलब है। इस विचार के दबदबे ने शिक्षकों की वास्तविक स्थिति को समाज की आंखों से ओझल कर दिया है। 

शिक्षक की बात सुनी जा सकती तो, हम समझ पाते कि ऑनलाइन पढ़ाकर बच्चों को बौद्धिक रूप से सक्रिय नहीं बनाया जा सकता है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए विद्यालय अनिवार्य है। विद्यालय में बच्चों को शिक्षा के साथ - साथ अन्य गतिविधियों में शामिल होने का मौका मिलता है। शिक्षा के इतर इन गतिविधियों से बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है। बच्चा मानसिक और शारीरिक रूप से मज़बूती प्राप्त करता है। साथ ही बच्चे को कक्षा कक्षों में अध्यापक के माध्यम से मिल रही शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व का विकास करती है। यही शिक्षा बाद में आर्थिक और सामाजिक जीवन में काम आती है। इसी बेसिक शिक्षा के बल पर उसके करियर का निर्धारण होता है। 


मजबूरी में पाठ पूरे करना एक बात है। ऑनलाइन शिक्षण को एक विकल्प की तरह देखना एक दम दूसरी बात है। अधीर और उकताया हुआ दिमाग ऐसी बात सोचता है। स्वास्थ्य तंत्र जिस समय संक्रमण से जूझ रहा है। उस समय शिक्षा तंत्र अपनी कमजोरियों से जूझ सकता था। यह कमजोरियां नई - नई हैं, पर इनका निदान व ईमानदार विश्लेषण कोरोना से पैदा हुई परिस्थिति से संभव है। इस परिस्थिति ने पहले से चली आ रही विसंगतियों व समस्याओं में कुछ नई चीजें जोड़ दी हैं। कुछ परेशानियों के नए कोण भी चमक उठे है। अंग्रेजी माध्यम का मंत्र जपती सरकारें जल्द ही उन लाखों ग्रामीण बच्चों से रूबरू होंगी, जो अपने माता - पिता के साथ किसी सुदूर राज्य से लौटे हैं और अभी तक उस राज्य की भाषा में शिक्षा पाते रहे है, जहां वे रह रहे थे।

यह एक उदाहरण भर है। कोरोना संकट से उपजी परिस्थिति के शैक्षिक आयाम इतने विविध व जटिल हैं कि एक साथ पकड़ में नहीं आ सकते। एक पहलू इतना बुनियादी है कि उसका संज्ञान अभी तक न लिया जाना आश्चर्य का विषय है। पिछले दशकों में निजी स्कूलों का विस्तार शहर और गांव हर जगह पर हुआ है और सरकारी स्कूल उजड़े हैं। हजारों सरकारी स्कूल इस आधार पर बंद किए गए है कि उनमें बच्चों की संख्या बहुत कम रह गई थी। अब स्थिति उलटने का संकेत दे रही है। 

कमाई के साधनों से वंचित अभिभावक फीस देने की हालत में नहीं है। इस कारण फीस के सहारे चलने वाले प्राइवेट स्कूल अपने शिक्षकों को तनख्वाह देने की हालत में नहीं रह गए हैं। अब बहुत से शिक्षक बेरोजगार हो जाएंगे। कुछ राज्यों में अनेक अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में डालना चाहते है। वहां शिक्षकों और जगह की कमी कई सालों से बढ़ती चली आ रही है क्योंकि नीतिकारों ने मान लिया था कि बच्चों की तादाद अब प्राइवेट स्कूलों में बढ़ेगी। उभरती हुई नई परिस्थिति इस बात की हल्की सी आशा जगाती है कि हर हिंदी भाषी राज्य का शिक्षा तंत्र नए सिरे से यानी पूर्वाग्रहों को छोड़कर कोरोना संकट के निहितार्थों पर विचार करेगा। 


उधर, बाकी देश व अन्य देशों में नए सवालों की उम्मीद की जा सकती है। कोरोना से पैदा विपत्ति से देश का हर प्रदेश और दुनिया का हर देश कुछ अलग ढंग से लड़ा है। भारत में केरल का आदर्श चर्चा में रहा है। एशिया में जापान और यूरोप में जर्मनी के प्रयास का अनुभव कुछ विशिष्ट है। केरल और बिहार की तुलना करके दोनों प्रांतों के छात्र भौगोलिक ऐतिहासिक व राजनैतिक परिस्थितियों के मिले - जुले प्रभाव का रोचक अध्ययन कर सकते हैं। 

कोरोना संकट से उपजे सबसे तीखे सवाल शिक्षा के अधिकार के कानून पर किए जा रहे अमल को घेरते हैं। कुछ बरसों से उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों में इस कानून का पालन कमजोर पड़ता चला गया है। केंद्र की मदद में कमी और प्रांतीय प्रशासनों के भीतर पनपती नीतियां प्रारंभिक शिक्षा के अधिकार को खोखला बना रही हैं। कोरोना के फैलाव से भारी संख्या में बड़े शहरों से श्रमिकों की अपने गाँवों में वापसी और बेरोज़गारी, शिक्षा के अधिकार पर अमल में आई एक नई मुसीबत है। हिंदी प्रांत खासकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में फिलहाल इस मुश्किल से निपटने की कोई तैयारी नजर नहीं आती।

राजस्थान, हरियाणा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी ऐसी तैयारी के लक्षण नहीं दिखाई देते। इन सभी राज्यों में कॉरपोरेट घरानों व गैर सरकारी उपक्रमों को प्रारंभिक शिक्षा व्यवस्था में बड़ी जिम्मेदारियां सौंप देने का सिलसिला वर्षों से चल रहा है। यह प्रवृत्ति कोरोना की फैलती विभीषिका में शिक्षा व्यवस्था के लिए महंगी पड़ेगी। बच्चों की शिक्षा को राज्य की प्रमुख ज़िम्मेदारी मानने का कोई विकल्प नहीं है। (लेखक पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी हैं)

Wednesday, July 8, 2020

कपड़ों से पहचानने वालों ने इस बार फेसबुक डीपी से पहचाना और प्रोफेसर 'ख़ान' पाकिस्तानी हो गए



-आशीष दीक्षित
विश्वविद्यालय है रुहेलखण्ड। शहर है उत्तर प्रदेश का बरेली। इसी विश्वविद्यालय में बरसों से फिजिक्स के एक प्रोफेसर हैं सलीम खान। अभी तक प्रोफेसर साहब को कम ही लोग जानते थे। आज सब जान गए। हंगामा यूं बरपा कि देखते ही देखते आई प्राउड टू बी एन इंडियन कहने वाले प्रोफेसर साहब हिंदुस्तानी से पाकिस्तानी हो गए। 

खता कुछ यूं हुई कि प्रोफेसर साहब ने कोरोना अवेयरनेस को अपनी डीपी बदली। फेसबुक डीपी बदलते समय एक फ्रेम सेलेक्ट किया। उस फ्रेम में पाकिस्तान का लोगो था। छोटे से लोगो पर नजर पड़ी नहीं। फ्रेम सेट हो गया। एक युवा देशभक्त की नजर पड़ी। प्रोफेसर का नाम सलीम खान है। फ्रेम में पाकिस्तान का लोगो है। देशद्रोही की पहचान को और क्या चाहिए। इस दौर में तो वैसे भी कपड़ों से ही दंगाइयों और देशद्रोहियों की पहचान हो जाती है।युवा देशभक्त ने अपना कर्तव्य निभाया। पुलिस में शिकायत की। मामले ने तूल पकड़ा। प्रोफेसर ने माफी मांग ली। मगर लोग इतने से संतुष्ट होने वाले कहां हैं।

अब सोशल मीडिया ट्रायल शुरू हो चुका है। उन्हें किसी ने स्वदेश के युवाओं को देशद्रोह के मार्ग पर ले जाने वाला व्यक्ति बताया तो किसी ने कहा कि यह लोग जितना पढ़ेंगे उतना ही बम बनाएंगे। अनपढ़ रहेंगे तो पत्थर मारेंगे। एक जनाब बोले कि इस पर जाकिर नाइक का असर लगता है। प्रोफेसर साहब सदमे में हैं। पुलिस अपने स्तर से जांच कर रही है। विश्वविद्यालय प्रशासन भी अपराध माफ करने के मूड में तो नजर नहीं आता है। 

लगे हाथ हमने भी उनकी फेसबुक वाल देख डाली। 1905 दोस्त हैं। तमाम पत्रकार भी। लगभग साल भर की वाल खंगालने के बाद एहसास होता है कि प्रोफेसर साहब फेसबुक पर बस इसलिए है कि दुनिया यह ना कहें कि वह फेसबुक पर नहीं हैं। तमाम लोगों ने उन्हें टैग कर रखा है। नहीं तो उन्होंने खुद ज्यादा पोस्ट नहीं की हैं। जो पोस्ट हैं उनमें पांच-छह बार उन्होंने अपना डीपी जरूर बदला है, जिनमें वह भारतीय तिरंगे के साथ नजर आ रहे हैं।

फ्रेम वाली डीपी उन्हें पसंद हैं। अक्सर वो इनका इस्तेमाल करते हैं। कभी भारतीय टीम का समर्थन बढ़ाते हुए तो कभी आई प्राउड टू बी एन इंडियन या आई स्टैंड फॉर पुलवामा मार्टियर्स कहते हुए।विश्वविद्यालय में लगे तिरंगे की तस्वीर भी उनकी फेसबुक वॉल पर नजर आती है। बीच-बीच में कुछ धार्मिक पोस्ट भी हैं। साथ में 11 अप्रैल को एक नामी समाचार पत्र में छपे उनके विचार की कटिंग भी जिसमें वो कहते  हैं कि मौलाना हो या नेता सब ने मिलकर मुसलमानों को बेवकूफ बनाया है। जो लोग मुसलमानों को डरा हुआ बताते हैं, वह बिल्कुल गलत है। मुसलमानों के लिए हिंदुस्तान से अच्छा कोई देश नहीं हो सकता।

तो जनाब, आपने भले ही कहा हो कि मुसलमानों के लिए हिंदुस्तान से अच्छा कोई देश नहीं हो सकता। भले ही आप ने तमाम बार तिरंगा लगाकर अपने देशभक्त होने का परिचय दिया हो। भले ही आपने पुलवामा में शहीद जवानों के लिए श्रद्धांजलि दी हो। मगर अब आप एक छोटी सी गलती कर संदेह के दायरे में खड़े हैं। आप यह कैसे भूल गए कि योर नेम इज खान एंड यू आर मोस्ट सस्पेक्टड पर्सन ऑफ इंडिया।

Monday, July 6, 2020

देश के 10 सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों मेें एक बताई गई 'जियो युनिवर्सिटी' का क्या हुआ?



- हेमंत कुमार झा
बीते 19 जून को कोई "क्यू एस वर्ल्ड युनिवर्सिटी रैंकिंग-2020" जारी हुआ है। इसमें दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत के तीन संस्थानों को जगह मिली है। आईआईटी,मुम्बई भारत में पहले स्थान पर है जबकि वैश्विक सूची में इसका स्थान 152वां है। आईआईटी, दिल्ली 182वें और इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु 184वें स्थान पर है। शीर्ष 500 में भारत के कुल 23 संस्थान हैं।

कोई खास बात नहीं। ऐसी सूचियां जारी होती रहती हैं। कभी भारत के कुछ संस्थानों के नाम इनमें आ जाते हैं, कभी आने से रह जाते हैं। सूची खंगालने के दौरान मेरी चिन्ता दूसरी थी। मैं बेकरारी के साथ इस लंबी सूची में अपने अंबानी सर की 'जियो युनिवर्सिटी' का नाम तलाशता रहा।

'जियो युनिवर्सिटी'...याद है न? वही, जिसे देश के चुनिंदा 'एक्सेलेन्ट' शिक्षण संस्थानों में शुमार किया गया था। शायद टॉप टेन में। इनमें से प्रत्येक को 1000 करोड़ रुपये सरकार की ओर से देने की घोषणा भी हुई थी। अपनी जेनरल नॉलेज थोड़ी कमजोर है, तो...जब हमने जियो नामक युनिवर्सिटी को साहब द्वारा एक्सेलेन्ट घोषित होते देखा तो अफसोस हुआ कि पता नहीं, कब अवतार हुआ इस विलक्षण संस्थान का और हम जान तक नहीं सके। 

संस्थान के शिलान्यास और उदघाटन के वक्त जरूर देवता गण पुष्पों की वर्षा कर रहे होंगे, दसों दिशाएं महक उठी होंगी और ऊपर कहीं मां सरस्वती की आंखों में गर्व और खुशी के आंसू होंगे कि चलो, अपनी भारत भूमि पर भी शैक्षणिक विलक्षणता का नया अध्याय शुरू हो रहा है। भले ही टॉप की युनिवर्सिटीज यूरोप, अमेरिका और चीन में हैं, लेकिन सरस्वती के भक्त तो हम ही हैं। माता कितनी खुश हुई होंगी!

हमने अपने एक पढ़े लिखे मित्र से पूछा कि इतना बड़ा युग प्रवर्त्तक अवतार हो गया और आपने बताया तक नहीं हमें। उन्होंने कहा कि अभी हुआ नहीं है, होने वाला है अवतार। हम सोचते रह गए। जो जन्मा ही नहीं वह महान कैसे घोषित हो गया? फिर...अपनी मिथकीय परंपरा और संस्कृति के अपने अल्प ज्ञान पर अफसोस होने लगा जब मित्र ने डांटा हमें..."पता नहीं है, त्रेता में अवतरित होने वाले राम के बारे में सतयुग में ही ऋषि-मुनि जानते थे, द्वापर में जन्मे कृष्ण के बारे में त्रेता युग में ही मनीषियों को पता था। हमारे साहब के थिंक टैंक में एक से एक टैलेंट है। उन्हें पता होगा कि अज्ञान के अंधकार का शमन करने 'जियो' नामक संस्थान कलियुग के इस अंतिम चरण में अवतरित होने वाला है। इसलिये, जन्म के पूर्व ही इसे एक्सेलेन्ट घोषित कर दिया।

अब वर्ल्ड रैंकिंग जारी करने वालों के पास भविष्य की आहट सुनने का वह टैलेंट कहाँ...सो...सूची में नाम नहीं जोड़ पाए। हालांकि, तमाम प्रयासों के बावजूद अभी तक पता नहीं लगा हमें कि वह अवतार हुआ या नहीं...या जियो जननी किसी ऋषि की दी हुई खीर या कोई फल आदि ही खा रही हैं अभी। बहरहाल, सूची के अनुसार दुनिया के टॉप 500 संस्थानों में भारत के जो 23 हैं, उनमें एक मात्र प्राइवेट संस्थान ओपी जिंदल युनिवर्सिटी है। बाकी 22 के 22 सरकारी हैं।

आश्चर्य लगा हमें। आखिर, 1991 से ही प्राइवेट संस्थानों को खुलने और लूट मचाने के लिये सरकारी प्रोत्साहन मिलता रहा है। पूंजी की कोई कमी नहीं, सस्ती दरों पर जमीन, अघा अघा कर लूट भी मचाई, लोग खुशी-खुशी लुटते भी रहे और इसके लिये गर्व भी महसूस करते रहे कि बबुआ के एडमिशन में इतने लाख लगे हैं...फिर भी 23 में 22 सरकारी ही?

जबकि, सरकारों ने कसम खा रखी है कि फैकल्टी के पद पूरे नहीं भरेंगे, सहयोगी स्टाफ की कमी से संस्थान प्रबंधन हलकान होते रहेंगे, फंड में कटौती दर कटौती जारी रखेंगे। तब भी...सरकारी संस्थानों की गुणवत्ता के सामने टिकने वाला एक भी प्राइवेट संस्थान खड़ा नहीं हो सका। इधर, बिहार में अपने नीतीश बाबू ने प्राइवेट विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिये शर्त्तें इतनी आसान कर दी हैं कि जान कर उन पर प्यार उमड़ आया। इतनी उदारता...किसी का भी मन भर आये।

नीतीश जी की सरकार ने फरमान जारी किया कि प्राइवेट युनिवर्सिटी खोलने के लिये अगर जमीन नहीं मिल रही या भवन बनाने की पूंजी नहीं तो किराये के मकानों में भी यूनिवर्सिटी खोली जा सकती है। जैसे, किराये के मकान में हम किराना की दुकान खोलते हैं, कुछ दिन चलाते हैं, फिर खैनी-तमाखू के बिजनेस में उतरने का मन करता है तो दुकान बंद कर किसी दूसरी जगह शिफ्ट हो जाते हैं। कितना सिंपल है!

इस आदेश के जारी हुए शायद दो-तीन वर्ष गुजर चुके। जरूर एक से एक संस्थान खुल चुके होंगे बिहार में। हालांकि, जेनरल नॉलेज कमजोर रहने के कारण हमें नहीं पता कि कहां कहां क्या क्या खुला। कभी वैकेंसी आदि भी नहीं देखी। पता नहीं, कैसे किनको बहाल करते हैं ये लोग, कितना पैसा देते हैं, कब निकाल देते हैं। बहरहाल, अगर किन्हीं सज्जन को जियो युनिवर्सिटी के अवतार ले चुकने की प्रामाणिक जानकारी हो तो जरूर बताएं।