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सुशांत की खुदकुशी में 'अवसर' ढूंढने वालों, नेपोटिज्म खत्म करना है तो शुरुआत अपने घर से करिए



- यूसुफ़ किरमानी

बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की अफ़सोसनाक ख़ुदकुशी के बाद तमाम लोग निपोटिज्म के मामले को ऐसे उठा रहे हैं, जैसे उन्होंने ज़िन्दगी में कभी निपोटिज्म किया ही नहीं है। आप पहले अपने घर से निपोटिज्म खत्म करने की शुरूआत कीजिए, फिर बॉलीवुड से निपोटिज्म खत्म करने के बारे में सोचिएगा। डिक्निशनरी में निपोटिज्म का हिन्दी में मतलब- पक्षपात, भाई-भतीजावाद, कुनबापरस्ती, तरफ़दारी आदि है। आप अपने ढंग से उसे हर जगह फ़िट कर सकते हैं। तो आइए आज इसी निपोटिज्म पर बात करते हैं।

आप लोग एक बेटा-बेटी के माता- पिता हैं। क्या तब आपको शर्म आई या आप लोगों ने निपोटिज्म के बारे में सोचा जब आपने अपनी बेटी से ऊपर बेटे को हर चीज़ में तरजीह दी? आपने अपनी संपत्ति में कभी बेटी के हिस्से के बारे में सोचा? क्या आपने बेटी को बेटे के मुक़ाबले वो आजादी दी, जो वो माँग रही थी? आप किस मुँह से निपोटिज्म की बात कर रहे हैं। आप कहेंगे परिवार के मामलों में निपोटिज्म नहीं देखा जाता, ...क्यों नहीं देखा जाता और क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? 

आप एक भाई हैं। आपके माता-पिता कुछ संपत्ति छोड़कर चले गए। क्या आपने कभी अपनी बहन को बुलाकर उस संपत्ति में हिस्सेदारी दी। यहाँ अब कुछ लोग मुझे टोक सकते हैं कि हमारे धर्म में तो बाक़ायदा बहन या बेटी को संपत्ति में हिस्सा देना लिखा हुआ है। लेकिन इन लोगों से भी मेरा सवाल है कि क्या आपने खुद से यह पहल की? तमाम मामलों में तो बहन/बहनें केस कर देती हैं। सवाल ये है कि यह भी एक तरह का निपोटिज्म है या नहीं। हालाँकि अब तो कानून बन चुका है जिसमें बहन-बेटी का हिस्सा संपत्ति में होता है लेकिन ज़्यादातर लोग इस कानून को नहीं मान रहे हैं।


आप एक कंपनी में मैनेजर या डायरेक्टर हैं और नौकरी देने की स्थिति में हैं तो क्या आपने सौ फ़ीसदी ईमानदारी बरती? क्या आपने दोस्ती-यारी में, रिश्तेदारी के दबाव में, बॉस के दबाव में, जाति-धर्म के आग्रह के चलते, क्षेत्रवाद के चलते किसी खास को नौकरी देने में निपोटिज्म नहीं किया? 

सदियों से ही तो निपोटिज्म घुट्टी में पिलाया जा रहा है। जुए में सिर्फ द्रौपदी ही क्यों दाँव पर लगाई गई, किसी भाई को क्यों नहीं दाँव पर लगाया गया? सिर्फ दलित, पशु और नारी को ही प्रताड़ना के लिए क्यों किसी लेखक ने चुना? सिर्फ दलित और छोटी जातियाँ ही निम्न स्तरीय काम करेंगी, यह व्यवस्था किसने बनाई...क्या यह निपोटिज्म नहीं है...कोई द्रोणाचार्य किसी दलित का ही अँगूठा दक्षिणा में क्यों माँगता है?  क्यों निपोटिज्म में किसी रोहित वेमुला को ही जान देनी पड़ती है। रोहित वेमुला के साथ जो निपोटिज्म हुआ उस पर उतनी बात नहीं हुई जितनी बॉलीवुड के निपोटिज्म पर हुई। क्योंकि बॉलिवुड में चकाचौंध है। कितने हिप्पोक्रेट हैं हम लोग।

मौलवी-मौलाना का काम है नमाज़ पढ़ाना या खुतबा देना या गाइड करना लेकिन वे अचानक वीआईपी क्यों बन जाते हैं? चंद रसूखदार उन्हें वीआईपी क्यों बना देते हैं, इसीलिए न कि जब पब्लिक में चर्चा होगी तो मौलवी या मौलाना उनका नाम लेंगे, उनका ज़िक्र अप्रत्यक्ष रूप से करेंगे....धर्म का पाठ पढ़ाने के अलावा मौलवी-मौलाना किसी जामा मस्जिद या इमामबाड़े से निकल कर क़ौम के ठेकेदार कब बन जाते हैं? माफ़ कीजिएगा यह निपोटिज्म नहीं तो क्या है ?

निपोटिज्म किसी का हक़ ही नहीं मार रहा है, वह क्षेत्रवाद, जातिवाद के रूप में भी आया और उसे सबसे ज्यादा नेता नामक प्राणी निपोटिज्म बढ़ा रहा है। ये यादव महासभा, ब्राह्मण महासभा, जाट महासभा,  अंसारी नेटवर्क आदि क्या हैं? जैसे ही आप किसी ऐसे समूह में सिर्फ उसी के हित की बात करने लगते हैं तो वहीं से निपोटिज्म की शुरूआत होती है। अपने ही क्षेत्र या अपने ही समाज के नाम पर निपोटिज्म को बढ़ावा क्यों? 


एक शख़्स योग सिखाने वाला बाबा बनकर आता है। योग सिखाते सिखाते एक दिन वो बड़ा कारोबारी बन जाता है। फिर एक दिन सेना की कैंटीन से डाबर, हमदर्द के मशहूर ब्रैंड की दवाएँ और अन्य सामान हटाकर वहाँ उस कारोबारी बाबा की कंपनी में बना सामान बेचा जाने लगता है। सोचिए, इस निपोटिज्म की पहले किसने किससे कराई होगी? अनुशासन के साये में बंधे सैनिक या छोटे सैन्य अफसर इस निपोटिज्म पर उफ भी नहीं कर सकते।

अब बॉलिवुड के निपोटिज्म पर आते हैं। बॉलिवुड में 1970 तक निपोटिज्म नाम को भी नहीं था। उस समय के सफल ऐक्टर दिलीप कुमार को मुगल-ए-आजम में काम पाने के लिए डायरेक्टर के. आसिफ का टेस्ट पास करना पड़ा था। हीरा-रांझा जैसी यादगार फिल्म बनाने वाले चेतन आनंद ने राजेश खन्ना का स्क्रीन टेस्ट लेने के बाद उन्हें पहली फिल्म आखिरी खत में मुख्य भूमिका सौंपी। लेकिन जब अंडर वर्ल्ड और कॉरपोरेट ने बॉलिवुड में पैसा लगाना शुरू किया तो निपोटिज्म भी आ गया। अंडरवर्ल्ड और कॉरपोरेट इसलिए पैसा लगाते थे कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा चाहिए था। प्रयोग बंद हो गए। कमाई करने वाले हीरो तलाशे जाते रहे और निपोटिज्म साथ-साथ परवान चढ़ता रहा। हालांकि इसी दौर में अक्षय कुमार, मनोज वाजपेयी, इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी थे जो तमाम कठिन रास्तों के बावजूद अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब रहे। लेकिन अब जबकि बॉलीवुड में कॉरपोरेट का कंट्रोल चरम पर है, तो निपोटिज्म भी चरम पर है। 


मशहूर पत्रकार और फिल्म डायरेक्टर ख्वाजा अहमद अब्बास के दफ्तर में एक दिन एक लंबा सा लड़का किसी रिफरेंस लेटर के साथ आता है। उसे फौरन सात हिन्दुस्तानी फिल्म मिल जाती है। जब वही लड़का सफल सुपर स्टार बन जाता है तो अपने लड़के के अलावा किसी और को फिल्मी दुनिया में लॉन्च करने को सोचता तक नहीं है। जैसे ही सुपर स्टार की घोषणा सामने आती है, अगले दिन घर के बाहर इतने डायरेक्टर जमा हो जाते हैं कि सोचना पड़ता है कि अपने बेटे को किन सुरक्षित हाथों में सौंपू। लेकिन बॉलिवुड में करियर बॉक्स आफिस यानी जनता तय करती है। उसने सुपर स्टार पुत्र की हर फिल्म को रिजेक्ट कर दिया। महान ऐड फिल्म मेकर प्रह्लाद कक्कड़ का रिफरेंस लेटर लेकर एक लड़का एक दिन फिल्म डायरेक्टर अजीज मिर्जा के पास आता है। अजीज मिर्जा फौरन उसे राजू बन गया जेंटलमैन फिल्म में मुख्य भूमिका दे देते हैं। फिल्म हिट हो जाती है। राजू बाद में बॉलिवुड में रोमांस फिल्मों का बादशाह बन जाता है। लेकिन इस बादशाह ने कभी किसी नए लड़के को चांस देकर कोई फिल्म नहीं बनाई कि कभी ताल ठोंककर कह सके देखों मैंने फलाने लड़के को पहली फिल्म दी थी। 

बॉलीवुड में एक सीधीसाधी सी लड़की आती है। उसे एक फ़िल्म मिलती है क्वीन। वो इतनी बेहतरीन अदाकारी करती है कि बॉक्स आफिस उसे भारत की क्वीन बना देता है। अब जब ये क्वीन जम गई तो इनका क्या फ़र्ज़ बनता था...इन्हें चाहिए था कि जब इन्हें बॉलिवुड में निपोटिज्म समझ आया तो दो-चार नए लड़कों को निपोटिज्म के पंजे से निकालकर लॉन्च कर देतीं या करवा देतीं। मगर जब इन्हें मौक़ा मिला तो इन्होंने अपनी बहन को ही अपना सेक्रेटरी बनाया जबकि ये किसी नए को या घर से बाहर वाली को मौक़ा दे सकती थीं। अब इस क्वीन ने अपनी फ़िल्म मर्णकर्णिका बनाने की घोषणा की। रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पर आधारित इस फ़िल्म के साथ यह क्वीन खुद ही निर्माता निर्देशक भी बन गईं। इन्होंने बॉलिवुड के जमे जमाए चेहरों को अपनी फ़िल्म में लिया। ये क्वीन ये भी तो कर सकती थी कि जमे जमाए चेहरों की बजाय संघर्ष कर रहे लड़के लड़कियों को इस फ़िल्म में लॉन्च करती और वे सारे निपोटिज्म का शिकार होने से बच जाते। पर नहीं, उन्होंने फ़िल्म पैसा कमाने के लिए बनाई है। निपोटिज्म तो बाद में ख़ाली टाइम देख लेंगे, अभी तो पैसा कमाना है तो जमे जमाए लोगों से काम लेना होगा।


क्वीन ने सुशांत सिंह राजपूत की दुखद मौत के बाद निपोटिज्म के खिलाफ झंडा सबसे ज्यादा बुलंद कर रखा है। अब यहाँ बॉलिवुड क्वीन से क्या यह सवाल पूछा जाए कि वह अपनी जगह करण जौहर को रख कर देखें। करण जौहर भी तो यही कर रहे हैं। पैसा कमाना है तो जमे जमाए लोगों से या फिर उन स्टार के बेटे - बेटियों को लॉन्च कर रहे हैं जो पैसा लगाने को तैयार हैं। करण जौहर या एकता कपूर या सलमान खान बॉलिवुड में निपोटिज्म दूर करने की चैरिटी नहीं चलाते हैं। ये लोग पैसा कमाने आए हैं और उसके लिए उन्होंने अपना तरीक़ा और रास्तता लाशा हुआ है। फ़िल्मों में पैसा लगाने वाले लोग अपने मतलब और मक़सद के लिए पैसा लगाते हैं। कॉरपोरेट में जितने भी लोग हैं, उनका मक़सद पैसा कमाना है, चैरिटी करना नहीं है। 

दरअसल, हम लोगों की अपनी ज़िन्दगी में जिस तरह क़दम क़दम पर निपोटिज्म के दर्शन होते हैं, ठीक वही हाल बॉलीवुड का है। इसके लिए एक तरीक़ा तो यह है कि जनता यानी बॉक्स आफिस बॉलीवुड के ऐसे हीरो-हिरोइन की फ़िल्म ही न देखे। दूसरी माँग सरकार से हो सकती है कि वह इसके लिए नियम बनाए जिससे निपोटिज्म रोका जा सके। क्या यह मुमकिन है कि एक जगह नए एक्टर, ऐक्ट्रेस खुद को रजिस्टर्ड कराएँ और वहाँ से हर निर्माता निर्देशक के लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि वहीं से कलाकार लेकर वह अपनी फ़िल्म बनाए। पर यह प्रैक्टिकल नहीं है। निपोटिज्म यूँ ही चलता रहेगा...रहती दुनिया तक।

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