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धोनी के संघर्ष को जीने वाला अपने जीवन संघर्ष से हार मान बैठा, यह बात कचोटती है



-शंभूनाथ शुक्ल

मैंने सुशांत सिंह राजपूत को नहीं देखा था। देखा तो मैंने महेंद्र सिंह धोनी को भी नहीं है। लेकिन इस कलाकार ने धोनी को ज़िंदा कर दिया, और खुद चल दिया। धोनी के किरदार को सुशांत ने ऐसा जिया, कि धोनी का पूरा संघर्ष और आत्म-द्वन्द सामने ला दिया। मुझे सुशांत में ही सदैव धोनी नज़र आया। एक ऐसा कलाकार ख़ुदकुशी कर लेगा, यह बात कचोटती है। धोनी के संघर्ष को जीने वाला अपने जीवन के संघर्ष से हार मान बैठा। मैं फ़िल्म की दुनियाँ के बारे में अधिक नहीं जानता, बस उनका ग्लैमर देखता हूँ। सुशांत बिना किसी गॉड फादर की मदद के फ़िल्मी दुनियाँ में आया। धूमकेतु की तरह चमका और हार मान कर खुद को मार लिया। 

मुझे लगता है, कि फ़िल्मी ग्लैमर के पीछे न जाने कितने सुशांत इस समय मानसिक संताप से गुजर रहे होंगे। खूब चकाचौंध भरी फ़िल्मी दुनियाँ की ज़िंदगी में कोरोना का ग्रहण लग गया है। गाड़ी, बंगला और ज़िंदगी की चमक-दमक बनाए रखने के लिए लोग अक्सर भविष्य को दाँव पर लगा देते हैं। इस कोरोना-काल में फ़िल्मी दुनियाँ ठप है। लेकिन गाड़ी, बंगला और दूसरे सामानों की ईएमआई तो नहीं रुकती। ऐसे में कोई ये दबाव कब तक झेलेगा? ख़ासतौर पर वे कलाकार, जिनका फ़िल्म जगत में कोई फ़ैमिली बैकग्राउंड नहीं है। लेकिन 1990 के बाद के उदारवाद ने उन्हें प्लास्टिक कार्ड के ज़रिए उधार की ज़िंदगी जीने को विवश कर दिया है। 


पहले हम लोगों को सिखाया जाता था, कि “ताते पाँव पसारिए, जाती लांबी सौर!” यानी पैर उतने ही फैलाएँ, जितनी लंबी चादर है। पर आजकल लोग कैरियर की शुरुआत से ही सब कुछ सहेजने में लग जाते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए, कि हथेली पर सरसों नहीं उगाया जा सकता। इसलिए इंतज़ार करें। कैरियर की शुरुआत से सब कुछ पा लेने के फेर में न पड़ें। अब सुशांत की ज़िंदगी में क्या दुःख थे, हम कभी नहीं जान पाएँगे।

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