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फिल्म समीक्षा: 'गुलाबो सिताबो' लाजवाब है, ये हमारे समाज की हिप्पोक्रेसी को खोलती है


- शंभूनाथ शुक्ल

12 जून को जब सुजित सरकार की फ़िल्म गुलाबो-सिताबो prime video पर रिलीज़ हुई तब उसी दिन देखने का मन था। लेकिन फिल्म क्रिटिक्स ने उसे बकवास बता दिया। यहाँ तक लिख दिया, कि आयुष्मान खुराना ने इस फ़िल्म में काम कर खुद के पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है। इसके बाद मैंने इसे देखने का इरादा टाल दिया। लेकिन कल रात मैंने यह फ़िल्म देख डाली। लाजवाब फ़िल्म है। अमिताभ तो खैर हैं ही अमिताभ यानी सूर्य आयुष्मान खुराना का अभिनय भी बेजोड़ है। 

मेरा मानना है, कि आयुष्मान के लिए यह फ़िल्म मील का पत्थर साबित होगी। बिना किसी नायक अथवा नायिका के सहारे बनी यह फ़िल्म हमारे समाज की हिप्पोक्रेसी को खोलती है। पेटी बुर्जुआ परिवारों में लोभ, लालच और लाचारी की यह करूण कथा है। इसे नहीं देखा तो एक अच्छी फ़िल्म से आप वंचित रह जाएँगे। आपको लगेगा कि फ़िल्म आपके आसपास घटित हो रही है। चलिए अमिताभ के लिए अवधी के शब्द बोलना कठिन नहीं लेकिन आयुष्मान ने भी बाँके रस्तोगी के रोल में ग़ज़ब की भाषा उच्चारी है।

हिंदी सिनेमा के क्रिटिक भी हिंदी साहित्य के आलोचकों की तरह हैं। जिस लेखक ने खुश कर दिया उसकी जय-जय और जिसने उन्हें नहीं पूछा उनका लिखा कूड़ा। लेकिन आप लोग इस फ़िल्म को देखें ज़रूर।
आज के माहौल में गुलाबो-सिताबो जैसी फ़िल्म की उपयोगिता इसलिए भी है क्योंकि जो समझते हैं कि हिंदू-मुस्लिम सम्बंध इतने तल्ख़ है कि दोनों के मोहल्लों में एक-दूसरे समुदाय के लोगों को किराए पर मकान नहीं मिलते। वे लखनऊ में आकर देखें। मिर्ज़ा के बगल में मिश्रा और पाँड़े के बग़ल में क्रिस्टोफ़र। यहाँ फ़ातिमा मंज़िल के मालिक मिर्ज़ा हैं और सारे किरायेदार हिंदू। धर्म या मज़हब का कोई झगड़ा नहीं।

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