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ऐसी धर्मनिरपेक्षता कहीं नहीं होती जहां राज्य और धर्म में ज़रा भी घालमेल न हो, यह कपोल कल्पना है!



-शादाब सलीम
हमने अपने जीवन में वंदे मातरम नारे पर विवाद देखें है। एक पक्ष कहता था- नारा लगाओ और दूसरा पक्ष कहता था- मैं नहीं लगाता। विभाजन, मस्ज़िद के शहीद हो जाने, बम्बई के दंगे और फिर बम्बई के बम कांड ने इतना धार्मिक वैमनस्य नहीं बोया था, जितना इस नारे की बहस ने बोया है। मूर्खता की इंतहा तो यह थी कि करने वालो ने इस नारे पर भारत की संसद तक में बहस कर डाली। इस बहस को प्रायोजित किसने किया! ऐसे ही मैंने योगा और सूर्य नमस्कार पर उठा पटक देखी है। 

वंदेमातरम नारा भारत के बहुसंख्यक आबादी के धर्म से आया है। उन्होंने भारत के नक्शे पर एक देवी की तस्वीर बनायी उसे माँ कहा क्योंकि बहुसंख्यक आबादी के धर्म में देश माँ है जबकि आयरलैंड के आदमी से आप देश को माँ कहेंगे तो वह इस पर हंसेगा और कहेगा- देश तो देश है देश क्या माँ बहन। 

भारत के मुसलमानों को कार्ल मार्क्स वाली अजीब नास्तिकता वाली धर्मनिरपेक्षता की कल्पना दिखायी गयी है जो बहुत बड़ी बेमानी है। भारत के मुसलमानों ने जिस धर्मनिरपेक्षता की कल्पना की है असल में वह तो सारी धरती पर नहीं मिलेगी। ऐसी धर्मनिरपेक्षता कहीं नहीं होती जहां राज्य और धर्म में ज़रा भी घालमेल नहीं हो, यह एक कपोल कल्पना है।

किसी भी देश में वहां की बहुसंख्यक आबादी का धर्म रच बस जाता है। आप स्टेट में बहुसंख्यक आबादी के धर्म की सेंध को रोक ही नहीं सकते और रोकना भी बेमानी है। भारत के न्यायालय तक में मंदिर बन गए है। कहीं इधर उधर ही छोटे मोटे पत्थर रखे हुए है। पुलिस थानों के बाहर मंदिर बने हुए है। सरकारी अस्पताल और दफ्तरों में मंदिर है, भले स्टेट ने नहीं बनाए पर प्रायवेट लोगों ने बना लिए।

भारत के अल्पसंख्यक मुसलमान इस खेल को नहीं समझ पाए जो उनके साथ खेला गया। वह मूर्ख बनकर वंदे मातरम नारे तक का विरोध करने लगे और यदि खामोश रहे तो विरोध करने वालो को जूता भी नहीं मारा।इसका प्रमुख कारण भारत के मुस्लिम कपोर कल्पित अजीब धर्मनिरपेक्षता से बाहर नहीं आ पाए।

धर्म सारी दुनिया में जीवन में बहुत अहम भूमिका रखने वाला रहा है। आप खगोल विज्ञान में खोज देखें। जैसे एक गैलेक्सी है जिसका नाम एंड्रोमेडा है। यह एंड्रोमेडा एक रोमन समुदाय के देवता का नाम है। नासा के चंद्रमा पर मनुष्य को भेजने वाले जितने भी मिशन भेजे गए है उन सब का नाम अपोलो है। अपोलो एक ग्रीक देवता है। स्टीफन हॉकिंग भले ईश्वर के अस्तित्व को नकार को गए हो पर खगोल की सारी बुनियाद ग्रीक और क्रिश्चियन धर्म पर रखी हुई है। नेप्च्यून नाम का ग्रह नेप्टोइन देवता के नाम पर है।

एंड्रोमेडा गैलेक्सी को यदि भारत खोजता तो उसका नाम रिद्धि रख देता और ईरान की अंतरिक्ष एजेंसी खोजती तो उसे नूह या जुलकरनैन का नाम देती। भारत यदि चंद्रमा पर ऐसे मिशन भेजता तो उसे शिव या गणेश के नाम देता और अगर तुर्की भेजता तो मुमकिन है मूसा, ईसा और हुसैन नाम देता।

इसमें दिक्कत क्या है? किसी भी देश के रंग ढंग में बहुसंख्यक आबादी का धर्म आ ही जाता है और इसे स्वीकार करना चाहिए। यूनाइटेड स्टेट में क्या क्रिश्चिनिटी का रंग ढंग नहीं है या फिर धर्मनिरपेक्ष तुर्की की स्टेट में इस्लाम नहीं है? या घनघोर उदार और धर्मनिरपेक्षता से भरे देश इंग्लैंड की स्टेट में क्रिश्चिनिटी नज़र नहीं आती?

भारत के मुसलमानों को बहुत अलग ही तरह की अजीब धर्मनिरपेक्षता वाली किताबी थ्योरी पढ़ायी गयी जो उन्हें ढूंढने पर भी सारे विश्व में कहीं नजर नहीं आएगी। उन्होंने बहुसंख्यक आबादी के इवेंट और तरीको में आनंद, उत्साह और उल्लास लेने के बजाए बहुसंख्यक आबादी से बैर पाल लिया। 

असल में धर्मनिरपेक्ष स्टेट वाली कोई भी बहुसंख्यक आबादी अपनी स्टेट को धर्म विशेष के लिए नहीं बनाना चाहती यह भारत में भी नहीं होगा पर बहुसंख्यक आबादी का रंग ज़रूर स्टेट में घुल जाता है। अगर ईरान को धर्मनिरपेक्ष कर दिया जाए तो दोबारा उसकी बहुसंख्यक आबादी कभी धर्म आधारित स्टेट नहीं चाहेगी। अल्पसंख्यक आबादी इसके साथ आनंद से रहने के उपाय ढूंढ लेती है।

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