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रोशनी की परंपरा, इससे जुड़े त्योहारों, मान्यताओं और इतिहास के बारे में कितना जानते हैं आप?

- नीतीश ओझा
Lantern–लालटेन–जिसकी कहानी शुरू होती है मानव सभ्यता के पुरातन समय से, फिर इसके प्रयोग का जिक्र यूरोप में मिलता है जब मोमबत्तियों का प्रयोग करके लालटेन बनाते थे। 16 सदी में यूरोप के अनेक देशों में रात के समय पहरा देने वाले सैनिक एक बड़ी सी लाठी में लालटेन को उठाए फिरते थे। भारत में भी मुगल काल के दौर में फ़ानूस इत्यादि का प्रकाश स्रोत के रूप में जिक्र मिलता है। 

फ़ानूस शब्द, पुरानी मिस्र (इजिप्ट) की परंपरा से लिया गया है। यह अरबी ईरानी यात्रियों के साथ भारत में आया । ग्रीक भाषा के  फ़ानोस का अर्थ भी दीप या चराग होता है । कुछ जगहों पर झाड फ़ानूस शब्द भी है जिसे ट्री आफ लाइट समझा जाये । ग्रीक भाषा का शब्द Pho का अर्थ भी रौशनी से है जो संस्कृत के “भा” के समान है । Pho से ही Phosphorus शब्द बना जिसका अर्थ हुआ – रौशनी देने वाला। 

17 वी सदी आते आते लंदन में सड़कों के किनारे स्ट्रीट लाइट्स में लालटेन का प्रयोग होने लगा था। वर्ल्ड वार के समय इसमें बहुत सुधार हुवे और सेना में इनका प्रयोग हुआ तो सैनिकों की भेषभूषा का रंग और जंगलों मे छिपने मे आसानी हो इसलिए लालटेन को अपना स्थायी रंग मिला – हरा और आज भी लालटेन का रंग हरा ही ज्यादा लोकप्रिय है। भारत के चुनाव आयोग द्वारा दिये चुनाव चिन्ह लालटेन का भी रंग हरा ही है ।  

भारत में दीपक का इतिहास प्रामाणिक रूप से 5000 सालों से भी ज्यादा पुराना हैं, मोहन जोदड़ो के काल में भी दीप जलाया जाता था। पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई के दौरान मिट्टी के पके दीपक मिले थे। कमरों में दियों के लिये आले या ताक़ बनाए गए थे, लटकाए जाने वाले दीप भी मिले हैं । दीवाली के समय बिकने वाली सजावटी कंदील भी लालटेन (फ़ानूस, आकाशदीप) का ही एक रूप है, जो की जापान, चीन में अत्यंत लोकप्रिय है जिसे आकाशदीप भी कहते हैं। किसी समय ग्वालियर के महाराजा के यहाँ विश्व का सबसे बड़ा फानूस था जिसे क्रेन से चढ़ाया गया था और चढ़ाने के पहले यह शंका थी कि कहीं छत ही ना गिर जाये तो फ़ानूस के वजन के बराबर हथियों को कई दिनों तक छतों पर घुमाया जाता रहा ।
हाथ में लेकर कहीं भी ले जा सकने वाली लालटेन का विकास रेलवे के साथ उन्नीसवीं सदी में हुआ । बाद में लालटेन मे अनेक सुधार हुवे, हम्फ्रे डेवी के किरोसिन आयल वाले से आगे बढ़ते हुवे, mantle वाले लालटेन का प्रयोग किया गया और ईंधन के लिए नैप्था की जगह गैसोलीन इत्यादि प्रयोग होने से दुर्घटनाएं कम होने लगी । लालटेन को बारिश, पानी, हवा इत्यादि से बचाने के लिए उच्च गुणवत्ता के शीशों का प्रयोग भी किया जाने लगा और गैस स्टोव की तरह हवा मारकर देर तक जलने वाले लालटेन का आविष्कार हुआ, जिसे Tilley Lamp कहा गया और इसे फर्स्ट वर्ल्ड वार में ब्रिटिश सैनिकों ने बनाया। बाद में इसी मैंटल वाले, पंपयुक्त लैंप (लालटेन) मे ईंधन के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों ने मेथायल स्पिरिट / पैराफ़िन का प्रयोग किया और लालटेन का नया रूप सामने आया जिसे कहा गया – पेट्रोमैक्स । 

हिन्दी कहानीकार फणीश्वर रेणु की एक कहानी पंचलाइट में सरपंच को नीचा दिखाने के लिए एक गुट पेट्रोमैक्स खरीदकर लाता है, लेकिन पंचलैट (जिसे वहाँ के लोग अंगिका भाषा में पंचलाइट या पंचलैट कहते हैं) को जलाना कोई नहीं जानता। पूरा गुट ही इस कार्य में असमर्थ हो जाता है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में, किसी अन्य गाँव की मदद लेने की बजाय, पंचायत द्वारा बहिष्कृत हुआ गोधन ही पंचलैट जलाकर मुखिया समेत अपने गुट की नाक बचाता है। इससे गांव वाले गोधन से प्रभावित होते है। बाद में गांववालों द्वारा गोधन और मुनरी के प्रेम संबंधों को सार्वजनिक सहमति दे दी जाती है। 2017 में इस पर फिल्म भी बन चुकी है । थाइलैंड में एक त्यौहार (Loi Krathong) पर जल की देवी के सम्मान में अनेक आकाशदीप समर्पित किए जाते हैं । 

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