Express and Explore Yourself

हिरासत में हत्याएं करने और बेकसूरों को फंसाने वाली पुलिस में सुधार की उम्मीद बेमानी है


- मुकेश असीम

जयराज-बेनिक्स की नृशंस हत्या के बाद 'पुलिस सुधार' वाले फिर सक्रिय हो गए हैं, पर मुझे सबसे बकवास लोग यही लगते हैं। अक्तूबर 2019 में हापुड़ के प्रदीप तोमर को पुलिस हिरासत में मार डाला गया, उसके 13 साल के बेटे के सामने ही सब हुआ। एक-दो हिम्मती पत्रकारों ने बच्चे का बयान ले खबर बनाई। 7 पुलिसियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई, दो गिरफ्तार हुये। पुलिस जाँच में बेटे-परिवार के बयान पलट गये (किसका चमत्कार?)! मार्च में पुलिस ने सब मुलजिमों को साफ शफ़ीफ बताते हुये अदालत में क्लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दी। न्यायमूर्ति भी पुलिस से सहमत हुये। मामला खत्म, मरने वाला अपनी मौत का खुद जिम्मेदार साबित हुआ! हर साल ऐसी ही हजारों घटनायें होती हैं देश में। 

ये 'सुधार' वाले इनमें से किस को सुधार कर आदर्श पुलिसिया बनाना चाहते हैं? कत्ल करने वालों को? उन्हें बचाने वाले सीओ, एसपी को? इन्हें अभय देने वाले आईजी, डीजी को? या कचहरी में बैठी, लगी मूर्तियों को? या जोधपुर में लगी मनु की मूर्ति को? दिल्ली के जनसंहार के वक्त घायलों का इलाज करने वाले डॉ अनवर को दंगे का आरोपी बनाने वालों को? 

हमारी पुलिस व्यवस्था तो 1861 में बनाई ही गई थी ठीक यही काम करने को। हमारे संविधान सभा वाले सब चतुर समझदार लोग थे, जानते थे कि काम तो उन्होने भी वही करना है, बस लूट के माल में हिस्सेदारी का हिसाब ही तो बदला है। वैसे भी एक लाला लाजपत राय वाली गलती को छोड़ दें तो पुलिस तब भी उनके साथ तो आदर-सम्मान से ही पेश आती थी। इसलिए उन्होने मय IPC-CrPC पूरी औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था को ससम्मान सिर माथे से लगाया। व्यवस्था बदलती तो पहले पुलिस में रहे कातिलों-लुटेरों को सजा दी जाती, बाकी को लात मार भगा दिया जाता। जहाँ पूरा आवा का आवा ही खराब हो, वहाँ सुधार नहीं किया जाता, पूरा फेंक नया बनाना पड़ता है।

आज भी हमारे समाज के सामने ठीक वही सवाल मुँह-बाये खड़ा है। शोषण-अन्याय मूलक समाज में पुलिस-अदालत सब शोषक तबके और उसके सत्ता तंत्र की रक्षा और मेहनतकश जनता पर दमन का औज़ार हैं। सुधार के नाम पर और अधिक शक्ति, हथियार, सुविधायें देना इन्हें दमन के लिए और भी कारगर बनाता है।

No comments:

Post a Comment