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कोरोना काल: हमारी ये छोटी-छोटी आदतें हमें बाकी दुनिया से अलग करती हैं

-शंभूनाथ शुक्ल

आज सुबह जैसे ही फ़्लैट के मुख्यद्वार को खोलकर कदम बाहर रखा, वह ज़मीन पर पड़े अख़बार से टकराया। अख़बार उठाया और माथे से लगाया। बचपन से आदत है, कोई किताब या पेपर पैर से छू जाए तो फ़ौरन उसे माथे से लगाते हैं, वर्ना विद्या माता या देवी सरस्वती का अपमान होता है। हम सब को पता है, कि किसी पुस्तक या पेपर में न तो देवी सरस्वती विराजती हैं, न इनको पढ़ने मात्र से हम विद्या-वारिधि बन जाएँगे। पर यह एक आदत है। अख़बार वाले पाँड़े जी को कहूँगा, कि उनके वेंडर अख़बार यूँ ज़मीन पर फ़ेकने की बजाय अड्डी पर रख दिया करें।

अब देखिए, हमारी ये छोटी-छोटी आदतें हमें शेष विश्व से अलग करती हैं और हमारी इम्यूनिटी को मज़बूत भी करती हैं। यह सब अनजाने में होता रहा है। ब्लैकबोर्ड पर जिस चाक से लिखते थे, उसे मास्टर भी थोड़ी खा लेते थे। पाइथागोरस की प्रमेय सिद्ध करते समय जरा सी गलती करने पर पाँड़े मास्टर नीम के हरे सोंटे से टाँगें लाल कर देते थे। आपेक्षिक घनत्व की परिभाषा न बता पाने पर गुप्ता जी कान लाल कर देते थे और अंग्रेज़ी थर्ड पेपर में टेंस न बता पाने अथवा हिंदी से अंग्रेज़ी न कर पाने पर कटियार एवं कुशवाहा मास्टर पूरे पीरियड भर मुर्ग़ा बनवा देते।

बॉबी देखने के लिए जब हम न्यू बसंत जाते तो दिनेश कल्लू को डंडे पर बिठाते और जगदीश बहादुर सिंह को कैरियर पर। खुद पाँच किमी की दूरी तक साइकिल खींचते। अगर घर पर पिताजी, उनके या इन दोनों के कोई परिचित या अपने चचेरे भाई देख लेते तो घर आने पर जूतों से पिटाई होती। स्कूल में प्रिंसिपल रामनायक शुक्ला रूल से झोरते। जीवन में कभी “आई लव यू” बोल नहीं पाए, इसलिए किशोर उम्र के प्रेम अथवा परस्त्री के प्रेम से वंचित रहे। 

तिमाही और छमाही इम्तिहान में फेल होने पर रिज़ल्ट कार्ड पिताजी के समक्ष पेश करने के पूर्व डर का ऐसा पैनिक होता, कि इस ससुरे कोरोना क्या होगा! बाक़ी हर साल प्रमोट तो हो ही जाते। यूपी बोर्ड की दसवीं व 12वीं में परीक्षा में सेकंड डिविज़न पास तो हो गए, पर अंग्रेज़ी में ग्रेस मार्क़्स के साथ। इसलिए सरकारी नौकरी का कोई चांस नहीं था। हालाँकि यह आदेश मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह का था,  कि विज्ञान वर्ग के छात्र कक्षा दस या बारह में हिंदी या अंग्रेज़ी में फेल हुए तो भी पास माने जाएँगे। अब हिंदी में कौन फेल होता है, अंग्रेज़ी में साठ प्रतिशत छात्र लुढ़के।

लेकिन न सही सरकारी प्राइवेट लाला की नौकरी पाई, और बदलीं भी तथा सम्मान के साथ जिए और किसी का क़र्ज़ नहीं लिया। तब हम भला इस पिद्दी सी बीमारी कोरोना से पैनिक क्यों हों। हाँ, जो कबूतर की तरह सुकुआर (कोमल) हों, वे डरें।

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