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राम किंकर जैसी सादगी और फ़क़ीरी चोला मैंने किसी भी दूसरे कथावाचक में आज तक नहीं देखा

-शंभूनाथ शुक्ल

आज जब कथावाचकों को लेकर राजनीति हो रही है, तो मुझे राम किंकर जी याद आते हैं। रामचरित मानस और सनातन हिंदू धर्म व संस्कृति के उद्भट विद्वान। मानस की एक-एक अर्धाली के अर्थ समझाते-समझाते वे अनेक कथाएँ कहते। कथा से कथा निकलती रहती, या कहें कि बहती रहती। पहली बार 1985 में मुझे कहा गया, कि बिडला मंदिर जा कर मैं उनकी कथा को कवर करूँ। यह कथा पूरी नवरात्रि चलने वाली थी। मैंने मना कर दिया। उस समय जनसत्ता के न्यूज़ एडिटर श्याम आचार्य जी मेरे पीछे पड़ गए। लेकिन मैंने स्पष्ट ना कर दी। तब प्रभाष जी के ज़रिए कहलवाया गया। 

मैं जनसत्ता के एडिट पेज में सब एडिटर था। मेरी ड्यूटी 11 से 5 तक की होती थी। तब दिल्ली में मीडिया हाउस में कार्यरत सभी पत्रकारों के ड्यूटी आवर्स छह घंटे के होते थे। बीच में आधा घंटे का ब्रेक। प्रूफ़ रीडर से लेकर संपादक तक सब को वेतन पालेकर आयोग से मिलता। अंग्रेज़ी और वर्नाक्यूलर (हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं) के पत्रकारों में कोई भेद नहीं होता था। समान वेतन, समान काम। चूँकि मैं पाँच बजे फ़्री हो जाता था, इसलिए मुझे ही इसमें लगाया गया। इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका जी भी राम किंकर जी की कथा सुनने जाते थे, इसलिए समूह के हिंदी अख़बार में कवरेज ज़रूरी थी। 

कथा शाम साढ़े पाँच से साढ़े छह तक चलती। अतः मैं शाम 5 बजे बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग से निकलता और आटो पकड़ कर बिड़ला मंदिर पहुँच जाता। वहाँ खूब भीड़ होती। दिल्ली के पुराने रईस और मारवाड़ी उद्योगपति वहाँ जमे होते। मैं श्रोताओं के बीच कहीं बैठता नहीं था। बस घूमता रहता, और जो कुछ सुनता उसे समझ लेता। फिर दफ़्तर आकर अपनी देसी भाषा में और ठेठ अपने अंदाज़ में उसे लिख देता। मेरी यह रिपोटिंग खूब पढ़ी गई। आख़िरी दिन कथा समाप्त करते हुए राम किंकर जी ने मंच से कहा, कि जनसत्ता के संवाददाता शंभूनाथ जी का मैं आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने इतने सुंदर तरीके से इसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। वे जहाँ कहीं भी हों, मंच पर आएँ। पर चूँकि मैं संकोची स्वभाव का हूँ और ऐसे समारोह व मान-सम्मान से दूर रहता हूँ, इसलिए गया नहीं। दफ़्तर आया, कथा लिख दी और घर आ गया। 

अगले रोज़ संपादक प्रभाष जी ने कहा, शुकल जी, जब आपको पंडित जी ने मंच पर बुलाया था, तो गए क्यों नहीं? मैंने कहा, मुझे फ़िज़ूल लगा। बोले अभी चले जाओ और उन्होंने अपनी गाड़ी से मुझे बिड़ला मंदिर भेजा। पंडित राम किंकर उपाध्याय वहीं धर्मशाला में ठहरे थे। जिसमें न तो एसी न कूलर न वाल टू वाल कार्पेट। एकदम सादा। उनके सहायक मैथिली मुझे लेकर गए। पंडित जी ने खड़े होकर मेरा अभिवादन किया। मैंने उनके पैर छुए। इसके चार साल बाद पंडित जी हरिद्वार में कथा पढ़ रहे थे, मैं वहाँ पहुँच गया, तो पंडित जी ने मुझे मंच पर बुलवा लिया। फिर तो ऐसे सम्बंध बने, कि हर साल वे हनुमान जयंती पर मुझे अपने मूल निवास मिर्ज़ापुर बुलवाते पर मैं एक बार भी नहीं जा सका। 

ऐसी सादगी, मानस पर उनकी मर्मज्ञता और फ़क़ीरी चोला मैंने किसी भी दूसरे कथावाचक में नहीं देखा। आज के कथावाचक तो उनकी विद्वता और उनकी सादगी के समक्ष कहीं नहीं टिकते। अलबत्ता व्यापारी ज़रूर नज़र आते हैं।

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